- 20 हजार आदिवासियों के बलिदान से लिखी गई आज़ादी की पहली कहानी
अशोक बड़ाईक
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में कई आंदोलन, कई बलिदान और कई वीर गाथाएँ दर्ज हैं। हालांकि उनमें से एक ऐतिहासिक क्रांति है, जिसे ‘हूल क्रांति’ कहा जाता है। यह भारत की आज़ादी की पहली संगठित लड़ाई थी, जो 30 जून, 1855 को झारखंड के साहिबगंज ज़िले के भोगनाडीह गांव से शुरू हुई। संताल जनजाति के सिद्धो-कान्हू, चांद-भैरव और फूलो-झानो जैसे महान वीरों ने अंग्रेजी हुकूमत और ज़मींदारी प्रथा के विरुद्ध “अबुआ दिशुम, अबुआ राज” (हमारा देश, हमारा शासन) का उद्घोष कर क्रांति का बिगुल फूंका।
‘हूल’ संताली भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ ‘क्रांति’ होता है। यह विद्रोह केवल किसी कर प्रणाली या अत्याचार के खिलाफ नहीं था, बल्कि यह आदिवासी अस्मिता, सांस्कृतिक पहचान, जल-जंगल-जमीन की रक्षा और स्वशासन के अधिकार के लिए था। यह वह समय था जब अंग्रेज सरकार और साहूकारों की मिलीभगत से आदिवासियों की ज़मीन छीन कर ज़मींदारों को दी जा रही थी। उनकी संस्कृति को कुचला जा रहा था। उनकी आजीविका पर संकट खड़ा हो गया था। ऐसे में संताल समाज के 50 हजार से अधिक लोग संगठित होकर इस क्रांति में शामिल हुए।
इस आंदोलन को कुचलने के लिए अंग्रेजों ने पूरी ताकत झोंक दी। फर्जी मुकदमों, दमन, गोलियों और फांसी के जरिए आदिवासी जननायकों को खत्म करने की कोशिश की गई। इतिहासकारों के अनुसार, इस क्रांति में लगभग 20,000 से अधिक आदिवासियों ने अपने प्राणों की आहुति दी। सिद्धो-कान्हू को 26 जुलाई, 1855 को अंग्रेजों ने फांसी दे दी, लेकिन उनका संघर्ष आज भी आदिवासी अस्मिता का प्रतीक बना हुआ है।
दुर्भाग्यवश, मुख्यधारा के इतिहास ने इन वीरों और उनके योगदान को लंबे समय तक उपेक्षित रखा। परंतु आजादी के 75 वर्ष बाद, जब देश ने ‘आजादी का अमृत महोत्सव’ मनाया, तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आदिवासी योद्धाओं को ऐतिहासिक सम्मान देने की पहल की। उन्होंने 15 नवंबर को ‘जनजातीय गौरव दिवस’ के रूप में घोषित किया, जो भगवान बिरसा मुंडा की जयंती है। इसका उद्देश्य आदिवासी समाज के योगदान को राष्ट्रीय मंच पर पहचान दिलाना और जनजातीय नायकों की गौरवगाथा को जन-जन तक पहुँचाना है।
प्रधानमंत्री मोदी ने यह स्पष्ट किया कि स्वतंत्रता संग्राम केवल कुछ गिने-चुने नेताओं की कहानी नहीं, बल्कि यह देश के कोने-कोने में लड़े गए संघर्षों और हजारों-लाखों बलिदानियों की विरासत है। इसी सोच के तहत झारखंड, ओडिशा, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, पश्चिम बंगाल और पूरे पूर्वोत्तर भारत के आदिवासी नायकों की कहानियों को प्रमुखता दी जा रही है।
हूल क्रांति कोई साधारण क्रांति नहीं थी, यह एक संगठित सामाजिक क्रांति थी, जिसने यह साबित किया कि आदिवासी समाज न केवल अपने अस्तित्व की रक्षा कर सकता है, बल्कि अपने आत्मसम्मान, स्वतंत्रता और संस्कृति के लिए जान देने को भी तत्पर रहता है। यह क्रांति देश की पहली ऐसी जनआंदोलन थी जिसमें महिलाओं की भी समान भागीदारी थी। फूलो-झानो जैसी वीरांगनाएं आज भी आदिवासी महिला सशक्तिकरण का प्रतीक हैं।
आज जब हम आज़ादी के अमृत काल में प्रवेश कर चुके हैं, यह अत्यंत आवश्यक है कि हम संथाल हूल क्रांति जैसे ऐतिहासिक आंदोलनों को उचित स्थान दें। हर वर्ष 30 जून को ‘हूल दिवस’ के रूप में मनाकर हम इन वीर योद्धाओं की स्मृति को नमन करते हैं और आने वाली पीढ़ियों को यह बताते हैं कि भारत की आज़ादी की नींव जंगलों, पहाड़ों और खेतों में रहने वाले उन अनाम नायकों ने रखी थी, जिनका इतिहास अब पुनः लिखा जा रहा है।
जय हूल! जय जोहार!

(लेखक झारखंड प्रदेश भाजपा के मीडिया सह प्रभारी हैं।)
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