गरमा और खरीफ दोनों मौसम में किसान कर सकते हैं तिल की खेती

कृषि झारखंड
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  • बीएयू कुलपति ने वैज्ञानिकों संग गरमा तिल फसल प्रदर्शन देखा

रांची। बिरसा कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ ओंकार नाथ सिंह ने तकनीकी पार्क में प्रदर्शित गरमा तिल फसल प्रत्यक्षण का अवलोकन किया। उनके साथ निदेशक अनुसंधान डॉ एसके पाल, तेलहन फसल विशेषज्ञ डॉ सोहन राम और आनुवंशिकी एवं पौधा प्रजनन विभाग के वैज्ञानिकों भी थे। वैज्ञानिकों संग राज्य में तिल की खेती की संभावना पर चर्चा की।

मौके पर कुलपति ने कहा कि तिल की खेती को एक अच्छा वाणिज्यिक व्यवसाय माना जाता है। इस सफलता से प्रदेश के किसान गरमा एवं खरीफ मौसम में दो बार तिल की खेती कर सकते है। यह कम लागत एवं कम सिंचाई में उपजाई जाने वाली तेलहनी फसल है। विवि ने तिल की कांके सफेद प्रभेद विकसित की है। यह प्रभेद प्रदेश के लिए उपयुक्त एवं अनुशंसित है। झारखंड के किसान गुजरात एवं सौराष्ट्र के किसानों की तरह दोनों मौसम में तिल की सफल खेती से बढ़िया लाभ अर्जित कर सकते हैं।

निदेशक अनुसंधान डॉ एसके पाल ने बताया कि राज्य में गरमा तिल की खेती भी की जा सकती है। गरमा मौसम में खेतों में सीमित सिंचाई सुविधा होने पर किसान गरमा तिल की सफल खेती कर सकते है। गरमा में 10-15 दिनों के अंतराल में 5-6 सिंचाई की जरूरत होती है, जबकि खरीफ मौसम में वर्षा आधारित खेती से और खर-पतवार के उचित प्रबंधन से बढ़िया उपज एवं लाभ ली जा सकती है।

तेलहन फसल विशेषज्ञ डॉ सोहन राम ने बताया कि प्रदेश के उपयुक्त कांके सफेद किस्म की अवधि 75-80 दिनों की है। इसकी उपज क्षमता 4-7 क्विंटल प्रति हेक्टेयर और तेल की मात्रा 42 से 45 प्रतिशत तक होती है। गरमा मौसम में सिंचाई साधन होने पर धान की परती भूमि में मौजूद नमी का फायदा उठाकर इसकी खेती संभव है। खरीफ में प्रदेश के लिए कांके सफेद, कृष्णा एवं शेखर उपयुक्त एवं अनुशंसित किस्में है। इन किस्मों की उपज क्षमता 6-7 क्विंटल प्रति हेक्टेयर और 42 से 45 प्रतिशत तक तेल की मात्रा विद्यमान होती है।

डॉ राम ने बताया कि एक हेक्टेयर में बुआई के लिए 5 से 6 किलोग्राम बीज की जरूरत होती है। खरीफ में वर्षा प्रारंभ होने पर जून से मध्य जुलाई तक बुआई की जा सकती है। बुवाई में कतार से कतार की दूरी 30 सेंटी मीटर और पौधा से पौधा की दूरी 10 सेंटी मीटर रखनी चाहिए। बढ़िया अंकुरण के लिए बुआई के समय हल्की सिंचाई अवश्य देनी चाहिए। बुवाई के समय 52 किलो ग्राम यूरिया, 88 किलो ग्राम डीएपी और 35 किलो ग्राम म्यूरिएट ऑफ पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करनी चाहिए। खर-पतवार नियंत्रण के लिए पहली निकाई-गुड़ाई बुवाई के 15-20 दिनों के बाद और दूसरी  निकाई-गुड़ाई 30-35 दिनों के अंदर कर देना चाहिए। वैज्ञानिक प्रबंधन से तिल की खेती से किसानों को कम लागत में बढ़िया मुनाफा मिलेगा।

तिल प्रक्षेत्र भ्रमण के दौरान वैज्ञानिकों में डॉ नीरज कुमार, डॉ सीएस महतो, डॉ जेएल महतो, डॉ एनपी यादव, डॉ अरुण कुमार, डॉ सूर्य प्रकाश, डॉ योगेश कुमार, डॉ कमलेश प्रसाद एवं डॉ एकलाख अहमद भी मौजूद थे।