संघर्ष से निकले नायक : नेताजी सुभाष चंद्र बोस

विचार / फीचर
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प्रहलाद सिंह पटेल

नेता जी सुभाष चंद्र बोस की कहानी, संघर्ष की कहानी है। एक ऐसे युवा स्वप्न की कहानी है, जो हर आंखों में चेतना, संघर्ष और सफलता की गाथा कहता है। जो अपनी भुजाओं की ताकत से जमीन को चीरने का माद्दा रखता हो। आसमान में सुराख करने की बात कहता हो। अपनी मंजिले अपने पुरुषार्थ से हासिल करने को आतुर हो। जिसे कुछ भी मुफ्त में मंजूर नहीं। अगर आजादी भी चाहता है तो अपना खून देकर। नेताजी, जिनकी एक आवाज पर हजारों लोगों ने अपने प्राण न्योछावर कर दिए। अंग्रेजों के खिलाफ जिन्होंने देखते ही देखते पूरी एक फौज खड़ी कर दी। जिनके कंठ से निकला एक नारा आसमान पर लिखा गया। जय हिंद। 

ओडिशा के कटक में नेताजी का जन्म हुआ, बंगाल के कोलकाता में कॉलेज की पढ़ाई हुई। ब्रिटेन में आईसीएस अफसर बनकर अपनी काबलियत का लोहा अपने दुश्मनों को भी मनवा दिया। लेकिन उन्हें अफसरी से मिली आराम और सुविधा की जिंदगी पसंद नहीं थी। उन्हें तो संघर्ष की गाथा लिखनी थी। वे तो योद्धा थे। जिन्हें स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई लड़नी थी। स्वतंत्रता आंदोलन को न सिर्फ तहे दिल से अंगीकार किया, बल्कि खुद आजादी की प्रेरणा बन गये- तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा। इस हुंकार के साथ पूरे देश को जगाने में लग गए। उनके विचारों में और उनके व्यक्तित्व में ऐसा करिश्मा था कि जो भी सुनता वो उनका हो जाता। उनकी लोकप्रियता आसमान चूमने लगी और वे आम जनता के नेता जी हो गए।

भारत माता से उन्हें इतना लगाव था की गुलामी की जंजीरों में बंधा देश उन्हें चैन से रहने नहीं देता था। उनके देश प्रेम ने उनसे यह करिश्मा करा दिया। उन्हें देश की सीमाओं के पार भी लोग पसंद करने लगे। बड़े-बड़े राष्ट्र अध्यक्ष उनके साथ होने लगे, नेताजी ने देश के बाहर भी आजादी के संघर्ष की अलख जगा दी। उन्होंने एक नई ताकत खड़ी कर दी और उस ताकत को आजाद हिंद फौज के रूप में देश के दुश्मनों के सामने खड़ा कर दिया। उन्होंने एक नए हौसले के साथ दिल्ली चलो का नारा दिया और हिंदुस्तान को आजाद कराने के लिए कूच कर दिया। उनकी 60 हजार की फौज के करीब 26 हजार जवानों ने अपने प्राण देश के लिए न्योछावर कर दिए। सीना तानकर जीने के लिए अंग्रेजों की सरपरस्ती को दुत्कारते हुए हुए सुभाष चंद्र बोस के तिरंगे में हिंदुस्तान का शेर ललकार रहा था। यह दहाड़ अंग्रेजों के सीने में उनकी धड़कनें बढ़ा रहा था, जिसकी अंतिम परिणति अंग्रेजों के भारत छोड़कर भागने में हुई।

‘सफलता, हमेशा असफलता के स्तंभ पर खड़ी होती है।‘- सुभाष चंद्र बोस ने अपनी इस सोच को जिया भी और जीने के लिए प्रेरित भी किया। नेताजी को असफलताएं बार-बार मिलीं, मगर उन्होंने उन असफलताओं को अपने संघर्ष से विजयी गाथा में परिवर्तित कर दिया। नगर निगम की राजनीति हो, आम कांग्रेसी से कांग्रेस अध्यक्ष बनने तक का सफर, फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना हो या फिर आजाद हिंद फौज का संघर्ष। वे हर कसौटी पर महारथी बनकर उभरे।

सुभाष चंद्र बोस ने महात्मा गांधी का नेतृत्व माना, मगर विडंबना देखिए कि खुद गांधी जी ही उनके कांग्रेस छोड़ने की वजह बन गये। लेकिन दोनों नेताओं में हमेशा एक दूसरे के प्रति सम्मान बना रहा। नेताजी ने कभी भी गांधी जी के लिए अपमान की भाषा नहीं बोली। नेताजी दो-दो बार कांग्रेस अध्यक्ष निर्वाचित हुए। मगर, पहले अध्यक्ष का पद छोड़ा, फिर कांग्रेस छोड़ दी। उसके आगे वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक ऐसा अध्याय लिख गये, जिसके पन्नों में आए दिन पन्ने जुड़ते रहते हैं। 

1939 और उसके बाद जब कांग्रेसी और कम्युनिस्ट देश की आजादी के बारे में अपना रुख साफ नहीं कर पा रहे थे, सुभाष चंद्र बोस तब आजादी का सपना लेकर हिटलर, मुसोलिनी और तोजो से लेकर स्टालिन तक से मिल चुके थे। उन्होंने ‘आजाद हिंद फौज’ का गठन ही नहीं किया, 21 अक्तूबर 1943 को आजाद सरकार भी बना ली। जर्मनी, इटली, जापान, आयरलैंड, चीन, कोरिया, फिलीपींस समेत 9 देशों की मान्यता भी इस देश को मिल गयी। 

भारत की आजादी के समय ब्रिटेन के प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली थे। वे 1956 में कोलकाता आए थे। उस समय उनके मेजबान गवर्नर जस्टिस पीबी चक्रवती ने उनसे यह जानने की कोशिश की थी कि ऐसी कौन सी बात थी जिस वजह से अंग्रेजों ने भारत को आजादी देना स्वीकार कर लिया था। जवाब में एटली ने कहा था कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद फौज की बढ़ती सैन्य गतिविधियों के कारण ब्रिटिश राजसत्ता के प्रति भारतीय सेना और नौसेना में वफादारी घट रही थी। यह एक प्रमुख कारण था। इस जबाव से पता चलता है कि भारत की आजादी में सुभाष चंद्र बोस का कितना बड़ा योगदान था। आरसी मजूमदार की किताब ‘ए हिस्ट्री ऑफ बंगाल’ में जस्टिस चक्रबर्ती की ओर से प्रकाशक को लिखी एक चिट्ठी में इसका जिक्र है।

नेताजी के जीवन में मध्यप्रदेश के जबलपुर का बड़ा योगदान है। नर्मदा का किनारा उनके जीवन में परिवर्तन की धारा बना। जबलपुर में 4 से 11 मार्च 1939 को त्रिपुरी कांग्रेस अधिवेशन हुआ था। इसमें हिस्सा लेने के लिए नेताजी बीमारी के बाद भी स्ट्रेचर पर पहुंचे थे। इसके बाद वे फारवर्ड ब्लाक का गठन करने के बाद 4 जुलाई 1939 को फिर एक बार जबलपुर आए थे। जहां पर नेताजी का अभूतपूर्व स्वागत हुआ था। मध्यप्रदेश के लोगों का नेताजी के साथ गहरा रिश्ता रहा है। प्रदेश के हर कस्बे में कोई न कोई वार्ड उनके नाम पर है। सहयोग क्रीड़ा मंडल द्वारा 37 साल से उनकी स्मृति में राष्ट्रीय कबड्डी प्रतियोगिता सहित अन्य देशज खेलों का आयोजन किया जाता रहा है। जो नेताजी के प्रति प्रदेश वासियों की गहरी आस्था का प्रतीक है। वे जबलपुर और शिवनी जेल में भी रहे थे। 

सुभाष चंद्र बोस की मजबूत पकड़ अंग्रेजी, हिन्दी, बंगाली, तमिल, तेलुगू, गुजराती और पश्तो भाषाओं पर थी। आजाद हिन्द फौज में वे इन भाषाओं के माध्यम से पूरे देश की जनता से संवाद भी करते रहे और संदेश भी देते रहे। नेताजी का अपने सहयोगियों के लिए संदेश था- “सफलता का दिन दूर हो सकता है लेकिन उसका आना अनिवार्य ही है। सुभाषचंद्र बोस कहा करते थे, “ जिस व्यक्ति के अंदर ‘सनक’ नहीं होती वो कभी महान नहीं बन सकता। लेकिन उसके अंदर इसके अलावा भी कुछ और होना चाहिए।”  नेताजी भारत में रहकर 11 बार कैद हुए। मगर, कैद से छूटने का ‘हुनर’ भी दिखलाया और दुनिया के तमाम शीर्ष नेताओं से मिलकर उद्देश्य पाने की ‘सनक’  भी दिखलायी। भारतीय नेतृत्व को वैश्विक पहचान दिलाने का श्रेय सुभाष चंद्र बोस को ही जाता है। इससे पहले स्वामी विवेकानंद ने भारत की आध्यात्मिक और सांस्कृतिक श्रेष्ठता व पहचान से दुनिया को अवगत कराया था। यही वजह है कि स्वामी विवेकानंद का प्रभाव उन पर नजर आता है। गीता का पाठ करना सुभाष चंद्र बोस ने कभी नहीं छोड़ा।

सुभाष चंद्र बोस का स्वतंत्रता के लिए संघर्ष भारत ही नहीं, तीसरी दुनिया के तमाम देशों के लिए प्रेरणा साबित हुआ। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद अगले 15 सालों में तीन दर्जन एशियाई देशों में आजादी के तराने गाए गये। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में लड़ी गयी आजादी की लड़ाई का उन पर गहरा प्रभाव रहा। नेताजी का यह रुतबा उन्हें वैश्विक स्तर पर ‘आजादी का नायक’ स्थापित करता है। 

(लेखक केन्द्रीय राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) संस्कृति एवं पर्यटन मंत्रालय हैं)