मुल्लार्प परियोजना की वार्षिक समूह बैठक में बीएयू वैज्ञानिकों ने लिया भाग

कृषि झारखंड
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रांची। भाकृअनुप-भारतीय दलहन अनुसंधान संस्थान, कानपुर द्वारा एआईसीआरपी ऑन मुल्लार्प परियोजना पर दो दिवसीय वार्षिक समूह बैठक का समापन बुधवार को हुआ। सीएसके हिमाचल प्रदेश कृषि विश्वविद्यालय, पालमपुर में 10 एवं 11 मई को ऑनलाइन एवं ऑफलाइन मोड आयोजित राष्ट्रीय बैठक में मुल्लार्प परियोजना अधीन आगामी खरीफ मौसम में दलहनी फसलों (मूंग, उरद, अरहर एवं कुल्थी)  के शोध कार्यक्रमों की रणनीति पर चर्चा हुई। इसमें बीएयू अधीन संचालित एआईसीआरपी ऑन मुल्लार्प परियोजना से जुड़े वैज्ञानिक डॉ पीके सिंह, डॉ एस कर्माकार, डॉ सीएस महतो एवं डॉ नीरज कुमार सहित दलहन शोध से जुड़े पूरे देश के 70 से अधिक वैज्ञानिकों ने भाग लिया।

कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए उपमहानिदेशक आईसीएआर डॉ टीआर शर्मा ने खाद्य सुरक्षा, स्थिरता और पोषण सुरक्षा में दालों की भूमिका पर जोर दिया। उन्होंने वैज्ञानिकों से दलहन को अधिक उत्पादक और जलवायु प्रतिकूलताओं के प्रति लचीला बनाने का प्रयास करने का आह्वान किया।

मौके पर सहायक महानिदेशक आईसीएआर (दलहनी एवं तेलहनी फसल) डॉ संजीव गुप्ता ने देश में मूंग और उड़द के उत्पादन में वृद्धि की संभावना पर चर्चा की। विशेष रूप से चावल परती भूमि में दालों के उत्पादन और उत्पादकता में विस्तार पर जोर दिया।

मौके पर राष्ट्रीय परियोजना अन्वेंषक (पौधा संरक्षण-दलहन) एवं अध्यक्ष, कीट विज्ञान, बीएयू डॉ पीके सिंह ने पूरे देश में पिछले खरीफ मौसम में अरहर फसल पर कीट एवं रोग सबंधी शोध प्रतिवेदन प्रस्तुत की। उन्होंने बदलते मौसम के कारण अरहर फसल में बढ़ते कीड़ों और कीटों के नुकसान के बारे में आगाह किया। कहा कि अरहर फसल पर नये कीट पोड बग का प्रकोप लुधियाना, तमिलनाडु एवं उत्तराखंड में देखा गया है। झारखंड में भी इस कीट का सीमित क्षेत्रों में प्रकोप देखा गया है। उन्होंने इस कीट के उचित नियंत्रण के लिए अग्रिम बचाव की आवश्यकता पर बल दिया।

बैठक में बीएयू-मुल्लार्प, रांची केंद्र के पिछले खरीफ मौसम में मूंग, उरद एवं अरहर फसल पर शोध कार्यक्रमों का उपलब्धि पर भी चर्चा हुई। आगामी खरीफ मौसम के शोध कार्यक्रमों की रणनीति पर दिशा-निर्देश दिये गए। बैठक में झारखंड में खरीफ दलहनी फसलों में चल रहे फसल सुधार, फसल प्रबंधन एवं फसल बचाव के शोधों और नए किस्मों के विकास पर संतोष जताया गया। राज्य के उपयुक्त दलहनी फसलों के अधिकाधिक किस्मों के विकास पर जोर दिया गया।