जंगल और पहाड़ी के बीच बसे 4 गांव अब तक कोरोना संक्रमण से अछूता

झारखंड
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गिरिडीह। आदिवासी समुदाय हमेशा से चेताता रहा है कि पर्यावरण का नुकसान करने से बीमारियां पैदा होती हैं। जंगलों की कटाई और वन्य जीवों की हत्या प्रकृति का विनाश कर रही हैं। यह कहना है प्रकृति-प्रेमी व समाजसेवी सिरोधा किस्कू का। श्री किस्कू गिरिडीह जिला अंतर्गत पीरटांड़ प्रखंड की तुईयो पंचायत में रहते हैं। उनका कहना है कि यहां के 4 गांव मधुकट्टा, सोहरैया, नोकनिया और धधकीटांड़ में रहने वाले आदिवासी समुदाय के लोगों को उनके रहन-सहन और परंपराओं ने अब तक कोरोना महामारी से बचा कर रखा है. यह सच भी है।

सालों भर अपने घर-आंगन की साफ-सफाई, कूड़ा-कचरा को गड्ढे में डाल तथा उसे तरीके से गला कर मिट्टी से ढंकने, प्रकृति की पूजा, सभ्यता-संस्कृति का पालन तथा पारंपरिक खान-पान के चलते ही ये आदिवासी गांव कोरोना संक्रमण से अब तक अछूता है।

समाजसेवी सिरोधा किस्कू बताते हैं कि हमारे गांवों में अब तक कोरोना से किसी की मौत नहीं हुई है। हां, शहर से मजदूरी कर लौटने या बाजार में आने-जाने वाले युवा खांसी-सर्दी, जुकाम और बुखार आदि से पीड़ित जरूर हुआ, पर किसी डाॅक्टर या दवा दुकान से दवा खरीद कर नहीं खाया। जंगल में मिलने वाली जड़ी-बूटी आदि का सेवन कर खुद स्वस्थ हो गये। नोकनिया गांव में पिछले दिनों कोरोना जांच और टीकाकरण कैंप लगा था। ग्रामीणों की जांच करने पर एक भी संक्रमित व्यक्ति नहीं पाया गया।

सिरोधा किस्कू बताते हैं कि आदिवासी परिवार स्वाद के लिए खाना नहीं खाते हैं। अधिकांश लोग शाकाहारी भोजन करते हैं। रहन-सहन का तरीका ऐसा कि ऑक्सीजन की कमी हो ही नहीं सकती. यह तरीका कोरोना संक्रमण को रोकने में लक्ष्मण-रेखा का काम करती है।

पारसनाथ की शृंखलाबद्ध छोटी-छोटी पहाड़ियों से घिरे हैं गांव
जैन धर्म के विश्व प्रसिद्ध तीर्थ-स्थल पारसनाथ की शृंखलाबद्ध छोटी-छोटी पहाड़ियों पर हरे-भरे जंगलों से घिरे इन गांवों में रहने वाले आदिवासी समुदाय के शाकाहारी व मांसाहारी खान-पान का साधन वनोत्पाद व वनों में रहने वाले पशु-पक्षी हैं। ये आदिवासी परिवार किसी समारोह में फाइबर, थर्मोकोल, प्लास्टिक व कागज के पत्तल का इस्तेमाल नहीं करता है। इसकी जगह सैरेय, पलाश व सखुआ के पत्ता से बने पत्तल पर भोजन परोसता व खाता है। दातून के लिए ब्रश की जगह करंज, परास, सैरेय, पुटूस की टहनी प्रयोग में लाता है।

बाजार की वस्तुओं से परहेज
आदिवासी समुदाय के लोग बाजार की खाने-पीने वाली चीजों से दूरी बनाकर रखते हैं। 70 वर्षीया चुरकी देवी तथा लोदो मुर्मू ने बताया कि माड़ में नमक डाल कर परिवार के सदस्य पीते हैं या चावल के साथ जरूर खाते हैं। जोन्हरा (मकई) को मशीन में पिसवा कर लाते हैं। इसे लपसी या घटरा कर खाने से ताकत मिलती है। बजड़ा को ढेकी में कूट कर घटरा बना कर खाते हैं।

गांव की वयोवृद्ध महिला बड़की देवी कहती हैं कि यूरिया और केमिकल के कारण अब बीमार होना पड़ता है, वरना हमने सात दशक में कभी दवा का सेवन नहीं किया। वहीं, बड़की देवी ने बताया कि भेलवा, केंदू, आड़ू, कोचरा का फल, खजूर का फल व रस तथा माड़ी आदि खाने से बदहजमी व पीत शरीर में नहीं रहता है। ये आदिवासी परिवार हरी सब्जी जैसे- नेनुआ, झींगा, परवल, कद्दू, करैला, खीरा, ककड़ी आदि को छील कर नहीं खाते हैं।

बुखार व सर्दी-जुकाम भगाने को ये करते हैं इस्तेमाल
इम्यूनिटी बढ़ाने के लिए समुदाय के लोग स्वयं उपचार करते हैं। बुखार, जुकाम या सर्दी आदि दूर भगाने के लिए जंगल में जमीन के अंदर मिलने वाले गेठी, कालमेग, नीम, छेछकी आदि का सेवन मौसम के अनुसार करते हैं। पुरखों से आदिवासी परिवार के लोग सोशल डिस्टैंसिंग का पालन करते आ रहे हैं। पंचायत की मुखिया उपासी किस्कू बताती हैं कि पका कटहल इम्यूनिटी बढ़ाने में कारगर है। कटहल का एक कच्चा बीज पेट के लिए फायदेमंद है, हमलोग बीज को भूज कर खाते हैं।

वहीं, जड़ी-बूटी के जानकार चुड़का मांझी ने बताया कि मड़ुआ की रोटी व घटरा खाने से जल्द शुगर नहीं होता है। साथ ही यह हीमोग्लोबिन बढ़ाने में बहुत मददगार है। चावल उबाल कर इसे पीस दें, यह चावल व जड़ी-बूटी डालकर बनाया गया माड़ी पेट के लिए फायदेमंद है।

रोगों को दूर करती है शारीरिक मेहनत
आदिवासी परिवार के लोग अपना समय व्यर्थ बर्बाद नहीं करते हैं। जंगल से लकड़ी लाना, शिकार करना, कंद-मूल, खेती-बाड़ी, मजदूरी, जानवर पालना आदि इनका मुख्य पेशा है। यहां के युवा कहते हैं कि काम नहीं रहने पर वे लोग ग्रुप बना कर जंगल में शिकार करने चले जाते हैं. जानवरों के पीछे कभी पांच किलोमीटर तक दौड़ना पड़ जाता है। शाम में फुटबाॅल खेलना पसंद है, लकड़ी लाने, जानवर को खिलाने के लिए पालहा-पात आदि लाने प्रतिदिन जंगल में जाते हैं। पहाड़ी शृंखलाओं में लकड़ी, कोमल पत्ता न मिलने पर दूसरी पहाड़ी पर चले जाते हैं। इस दौरान वे कई किलोमीटर का सफर तय करते हैं। इस कारण शारीरिक रूप से तंदुरुस्त रहते हैं। आदिवासी समुदाय में शायद ही किसी को मधुमेह, ब्लड-प्रेशर, कब्ज आदि की शिकायत होती है।

बदलते मौसम के हिसाब से खान-पान आदिवासी समुदाय की खासियत है : कविराज
कविराज भोलानाथ सिंह का कहना है कि शाकाहारी भोजन, बदलते मौसम के हिसाब से खान-पान, जंगलों में मिलने वाली जड़ी-बूटी, कंद-मूल के निरंतर सेवन से जल्दी बीमारी नहीं पकड़ती है। जंगल में रहने वाले आदिवासी समुदाय के लोग शुद्ध ऑक्सीजन और शुद्ध पानी का सेवन करते हैं। रासायनिक खाद से उपजी सब्जी आदि से दूर रहते हैं। काफी मेहनत करते हैं, इससे उनका शरीर मौसम, छोटे-मोटे रोग से लड़ने में सक्षम होता है। साथ ही, ये बाजार की भीड़-भाड़ से काफी दूर रहते हैं। कोरोना नहीं होने की एक वजह यह भी है। आधुनिकता के दौर में भी आदिवासी समुदाय के लोगों ने खान-पान, रहन-सहन में परिवर्तन नहीं लाया है।