तन-मन को स्वस्थ रखने के लिए डॉ. परिणीता सिंह ने बताईं योग की बारीकियां, जरूर पढ़ें

झारखंड
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  • जब इड़ा-पिंगला में संतुलन स्थापित हो जाता है, तो साधक की उच्च चेतना समय के परे चली जाती है।
  • संध्या के समय सुषुम्ना नाड़ी प्रबल होती है और कुंडलिनी अपने मार्ग में अग्रसर होने लगती है।
  • इड़ा एवं पिंगला में जागृति और संतुलन प्रकाश का पथ कहलाता है।
  • आज के समय में सही विचार, जीवन के उद्देश्य को जानने और समझने के लिए योग की बारीकियों को अपनाना होगा।

रांची। नाड़ियां जिसे विज्ञान ने भी माना है- ये सूक्ष्म शरीर में व्याप्त हैं, परन्तु अपनी कार्य प्रणाली द्वारा स्थूल शरीर को प्रभावित करती हैं। चक्र, जिसे यौगिक भाषाओं में अतीन्द्रिय शक्तियों का केन्द्र कहा गया है, जो हमारे सूक्ष्म शरीर में स्थित है।

ये नाड़ियां हमें उन सूक्ष्म शरीर तक ले जाने में सक्षम हैं, जब इड़ा (बायां नासाग्र रंध्र) और पिंगला (दायां नासाग्र रंध्र) में सभ्यक् संतुलन होता है, तब चक्रों की जागृति होती है।

अलग-अलग यौगिक ग्रंथों में नाड़ियों की संख्या अलग-अलग बतायी गई है, परन्तु सभी में पिंगला, इड़ा एवं सुषुम्ना मुख्य नाड़ियां मानी गयी हैं।

भारतीय शास्त्रों में केवल इड़ा अथवा पिंगला के मार्ग को अंधकार का पथ माना गया है, जिसे पितृयान कहते हैं।

यह पथ मोह और अज्ञान का है। इड़ा एवं पिंगला में जागृति और संतुलन प्रकाश का पथ कहलाता है।

इसे देवों का पथ भी कहते हैं। इड़ा जिसे चित्त भी कहते हैं, यह आन्तरिक जगत के तथा पिंगला जिसे प्राण कहते हैं, सांसारिक प्रपंच में समन्वय स्थापित करता है।

जब दोनों का बर्हिमुखी और अंतर्मुखी पथ का आभ्यास एक साथ किया जाता है, तो इन्हें नियंत्रित करना आसान हो जाता है।

इड़ा जिसे चन्द्र नाड़ी कहते हैं, ये ऋणात्मक ऊर्जा का वाहन करती है, जबकि पिंगला जिसे सूर्य नाड़ी कहते हैं, वह धनात्मक ऊर्जा का वाहन करती है। इड़ा एवं पिंगला का प्रवाह समयाधीन है। उनके माध्यम से अंतर्जगत एव बहिर्जगत की क्रियाओं की अभिव्यक्तिकरण होता है।

ध्यान या प्राणायाम द्वारा इन्हें संतुलित किया जाता है, तभी कुंडलिनी सुषुम्ना के मार्ग में आगे बढ़ती है और व्यक्ति कालातीत जगत् में प्रवेश करता है। शास्त्रों में कुंडलिनी शक्ति को कालग्रासिनी भी कहा गया है।

हठयोग प्रदीपिका में लिखा है-

सूर्याचंद्रमसौ धत्तः कालं रात्रिंदिवात्मकम् ।

भोक्त्री सुषुम्ना कालस्य गुध्यमेतदुदाइतम्।।

अर्थात – साधक को सूर्य एवं चंद्र को नियंत्रित करना चाहिए, क्योंकि वे दिन और रात के रूपों में कालाधीन हैं। इसका रहस्य यह है कि सुषुम्ना (कुण्डलिनी) इस काल का भक्षण करती है।

इसका तात्पर्य यह हुआ कि जब इड़ा-पिंगला में संतुलन स्थापित हो जाता है, तो साधक की उच्च चेतना समय के परे चली जाती है। वहां काल का अंत हो जाता है।

बाहरी सूर्य और चंद्र 24 घंटों को दिन और रात में बदलते हैं, जबकि आन्तरिक सूर्य और चन्द्र शरीर के अंदर रात दिन का बंटवारा करते हैं। इड़ा रात को प्रबल होती है, जिससे परानुकंपी तंत्रिका तंत्र सक्रिय होता है तथा मेलाटोनिन नामक हार्मोन का श्राव होता है। हमारा अर्धचेतन मन सक्रिय होने लगता है, जबकि पिंगला दिन में प्रबल होती है, जो अनुकंपी तंत्रिका तंत्र को सक्रिय कर सेराटोनिन का स्राव करती है, जो चेतन अवस्था का द्योतक है। हमारी आन्तरिक संरचना इसी प्रकार चलती रहती है। जब प्राणायाम या ध्यान किया जाता है, तो दोनों में संतुलन लाया जाता है, तो स्वचालित तंत्रिका तंत्र नियंत्रित होता है।

साथ ही जब दिन और रात का मिलना होता है, तो उसे संध्या कहते हैं। अतः इस समय सुषुम्ना नाड़ी प्रबल होती है और कुंडलिनी अपने मार्ग में अग्रसर होने लगती है, जिससे अलौकिक संपदाएं हमारे अंदर उत्पन्न लगती हैं। आज के समय में सही विचार,जीवन के उद्देश्य को जानने और समझने के लिए योग की बारिकियों को अपनाना होगा।

डॉ. परिणीता सिंह (योग विशेषज्ञ)

Email :: parinitasingh70@gmail.com