भावी पीढ़ी की खाद्यान्‍न सुरक्षा में मृदा स्वास्थ्य प्रबंधन की जरूरत

विचार / फीचर
Spread the love

विश्व मृदा दिवस (5 दिसंबर) पर विशेष लेख

डॉ डीके शाही

संयुक्त राष्ट्र महासभा के अधिकारिक घोषणा से प्रत्येक वर्ष पूरे विश्व में 5 दिसंबर को विश्व मृदा दिवस मनाया जाता है। इसकी सिफारिश वर्ष, 2002 में इंटरनेशनल यूनियन ऑफ सॉयल साइंसेज ने की थी। विश्व खाद्य संगठन ने जून 2013 में विश्व मृदा दिवस प्रत्येक वर्ष मनाने का समर्थन करते हुए 68वीं संयुक्त राष्ट्र महासभा में अपनाने का अनुरोध किया। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने आधिकारिक रूप से 5 दिसंबर, 2014 को विश्व मृदा दिवस मनाने को स्वीकृति प्रदान की। हमारा भविष्य मिट्टी के स्वास्थ पर निर्भर करता है। मिट्टी प्रबंधन के महत्व और इसे बनाये रखने के लिए यह दिन समर्पित है। इस वर्ष विश्व मृदा दिवस का मुख्य थीम मिट्टी की लवणता को रोकना, मिट्टी की उत्पादकता को बढ़ावा रखा गया है।

खाद्यान्‍न उत्‍पादन में बढ़ोतरी जरूरी

भारत वर्ष में  विश्व की लगभग 17 प्रतिशत जनसंख्या मात्र 2.5 प्रतिशत भौगोलिक क्षेत्र पर निवास करती है। हर वर्ष जनसंख्या में तेजी से वृद्धि हो रही है। लगातार शहरी और औद्योगिकीकरण के कारण कृषि योग्य उपजाऊ भूमि कम हो रही है। एक अनुमान के अनुसार खाद्यान्‍न उत्पादन में प्रतिवर्ष लगभग 5 से 6 मिलियन टन बढ़ोतरी की आवश्यकता है। इसके लिए कम उपजाऊ और समस्याग्रस्त भूमि का सही प्रबन्धन कर कृषि उपज बढ़ाने की जरूरत है।

झारखंड में भूमि की यह स्थिति

झारखंड की भूमि अम्लीय समस्या से सर्वाधिक प्रभावित है। लगभग 10 लाख हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि अम्लीय भूमि के अंतर्गत आती है, जो कुल भौगोलिक क्षेत्र का 48 प्रतिशत है। राज्य के उत्तरी पूर्वी पठारी जोन (जोन IV) के अंतर्गत जामताड़ा, धनबाद, बोकारो, गिरिडीह, हजारीबाग एवं रांची के भौगोलिक क्षेत्र का 50 प्रतिशत से अधिक भूमि अम्लीय समस्या से ग्रस्त है। पश्चिमी पठारी जोन (जोन V) में सिमडेगा, गुमला एवं लोहरदगा जिले में 69 प्रतिशत से 72 प्रतिशत तक अम्लीय भूमि की समस्या है, जबकि दक्षिण-पूर्वी पठारी जोन (जोन VI) में अम्लीय भूमि की समस्या सबसे ज्यादा है। इस जोन के अंतर्गत आने वाले सरायकेला, पूर्वी एवं पश्चिम सिंहभूम में अम्लीय भूमि समस्या से प्रभावित क्षेत्र करीब 70 प्रतिशत है। ऐसी भूमि में अम्लीयता के कारण उपजाऊ शक्ति में कमी आ जाती है। ऐसी भूमि से पूर्ण उत्पादन क्षमता दोहन के लिए रासायनिक खादों के साथ-साथ चूने का सही प्रयोग सबसे सरल व उपयोगी उपाय हैं।

सूक्ष्म पोषक तत्वों की स्थिति में गिरावट

झारखंड में सघन खेती एवं लगातार असंतुलित मात्रा में उर्वरकों के व्यवहार से भूमि में उपलब्ध मुख्य पोषक तत्वों एवं सूक्ष्म पोषक तत्वों की स्थिति में गिरावट हो रही है। राज्य की मिट्टी की जांच में मुख्य पोषक तत्वों में मुख्य रूप से फॉस्फोरस (स्फूर) एवं सल्फर (गंधक) की कमी पाई गई है। भौगोलिक क्षेत्र का लगभग 66 प्रतिशत भाग में फॉस्फोरस एवं 38 प्रतिशत भाग में सल्फर की कमी देखी गई है। स्फूर (फॉस्फोरस) एवं सल्फर (गंधक) की कमी विशेषत: दलहनी एवं तेलहनी फसलों की उपज को प्रभावित करता है। फसल विलंब से पकते हैं। बीजों या फलों के विकास में कमी आती है। पोटेशियम की उपलब्धता भौगोलिक क्षेत्र के 51 प्रतिशत भाग में निम्न से मध्यम और नाइट्रोजन की उपलब्धता 70 प्रतिशत क्षेत्र में निम्न से मध्यम पाई गई है। जैविक कार्बन की स्थिति करीब 47 प्रतिशत क्षेत्र में मध्यम पाई गई है।

भूमि में उपलब्ध बोरॉन की स्थिति अपर्याप्त

मिट्टी में सूक्ष्म पोषक तत्वों की उपलब्धता में 44.52 प्रतिशत भूमि में उपलब्ध बोरॉन की स्थिति अपर्याप्त (कमी) देखी गई है। अन्य सूक्ष्म पोषक तत्वों में से उपलब्ध कॉपर, उपलब्ध जिंक, उपलब्ध लोहा, उपलब्ध मैंगनीज, उपलब्ध कैल्सियम की स्थिति का प्रतिशत औसतन भूमि में पर्याप्त पाई गई है। सरायकेला, पलामू, गढ़वा, लोहरदगा, पूर्वी सिंहभूम एवं लातेहार जिले में बोरॉन की कमी तथा पाकुड़, लोहरदगा, गिरिडीह एवं कोडरमा जिले में जिंक की कमी देखी गई है।

मृदा स्वास्थ्य प्रबंधन के प्रति जागरूक हो

झारखंड में अम्लीय भूमि की समस्या, भूमि में उपलब्ध मुख्य पोषक तत्वों एवं सूक्ष्म पोषक तत्वों की स्थिति को देखते हुए किसानों, कृषि हितकारकों एवं रणनीतिकारों को मृदा स्वास्थ्य प्रबंधन के प्रति जागरूक होने की आवश्यकता है। राज्य की भावी पीढ़ी की खाद्यान्‍न एवं आजीविका सुरक्षा में मृदा स्वास्थ्य पर विशेष ध्यान देनी होगी।

डॉ डीके शाही

(लेखक झारखंड के रांची स्थित बिरसा कृषि विश्‍वविद्यालय के मृदा विज्ञान एवं कृषि रसायन विभाग के अध्‍यक्ष हैं।)