सचिन श्रीधर
भारतीय जनसंख्या 1947 के 34 करोड़ से चार गुना बढ़कर 2020 में 139 करोड़ हो गई है। केंद्र सरकार के मंत्रालयों की संख्या 18 से 51 और सरकारी कर्मचारियों की संख्या लाखों में बढ़कर 66 लाख हो गई है, जिसमें 52 लाख पेंशनभोगी हैं। इनकी संख्या बढ़ रही हैं। इसके विपरीत संसद का आकार पिछले 7 दशकों में 9.5% की मामूली वृद्धि के साथ 1952 में दोनों सदनों के 705 सदस्यों से बढ़कर 2021 में मात्र 772 हुआ है। जबकि, स्वतंत्र भारत के इन आगामी दशकों में सरकार का व्यापक पैमाना, बहुत से रूचिकर और अधिकांश अरूचिकर तरीके, जो हर नागरिक के जीवन को प्रभावित करते हैं। एक विविधतापूर्ण देश के मामलों के प्रबंधन में सामने आने वाली विधायी जटिलता सभी में कई गुणा वृद्धि हो चुकी है। पिछले 7 दशकों में देश के भौतिक बुनियादी ढांचे में कई गुना वृद्धि हुई है और इसके बावजूद भी, एक के बाद एक आईं केंद्र सरकारों ने इतिहास की कुछ अस्पष्ट अवधारणाओं के कारण अथवा शायद अपनी निष्क्रियता के चलते सेन्ट्रल विस्टा में एक वर्ग फुट भी नहीं जोड़ा। यहां तक कि इसके लिए ड्राइंग बोर्ड पर भी योजना नहीं बनाई गई। इस मामले में प्रशासनिक जरूरतों और शासन को भी नकार दिया गया ।
सभी विश्व मानकों के अनुसार हमारी संसद का आकार बहुत छोटा है। 25-40 लाख मतदाताओं वाला निर्वाचन क्षेत्र मुश्किल से अपने सांसद को जवाबदेह ठहरा सकता है। इसकी तुलना उस ब्रिटिश शासन से करें जिसके वेस्टमिन्स्टर मॉडल की हमने नकल की है। केवल 7 करोड़ लोगों के साथ, ब्रिटिश संसद में हाउस ऑफ कॉमन्स के लगभग 630 (निर्वाचित) सदस्य हैं जो 7 करोड़ से कम लोगों (भारत का 5%) का प्रतिनिधित्व करते हैं। भारत में सांसदों की संख्या परिसीमन आयोग द्वारा तय की जाती है और अतीत में, 1952, 1963, 1973 और 2002 में चार आयोगों ने बैठक करके यह संख्या तय की थी। आने वाले 2026 में, एक और आयोग की बैठक होने वाली है और 2031 तक कम से कम 800 से अधिक लोकसभा सदस्यों की एक बड़ी संसद का गठन होने की संभावना है। अगर अभी नहीं, तो भारत को इसकी योजना कब बनानी चाहिए? हमने भारत में बस लगातार तर्क देने की एक झगड़ालू संस्कृति को विकसित किया है जो कुछ भी करने या बनाने की अनुमति नहीं देती है, यही स्थिति रही तो हो सकता है नई संसद को अपना पहला सत्र तंबू में रखना पड़े!
भारत को छोटे निर्वाचन क्षेत्रों और एक ऐसी बड़ी संसद की आवश्यकता है जो बड़ी, अधिक कार्यात्मक, सुबोध और ऊर्जा कुशल हो, और यह अपने आप में एक नए संसदीय भवन के निर्माण के लिए पर्याप्त रूप से तर्कसंगत है।
वर्तमान सचिवालय में 51 मंत्रालयों में से केवल 22 मंत्रालय हैं जबकि शेष दिल्ली भर में फैले हुए हैं। इनके एक ही जगह होने से बेहतर और शीघ्र समन्वय तो किया ही जा सकेगा अपितु इससे केंद्रीकृत हाउसकीपिंग, आईटी, लॉजिस्टिक्स एवं चपरासी/क्लर्क जैसी जरूरतों के लिए कम खर्च किए जाने की अपार संभावनाएं भी पैदा होती हैं।
इसके अलावा एक सोची-समझी योजना के माध्यम से लगातार बयानबाजी और तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर एक और भ्रांति फैलाई गई है कि पुराने भवन तोड़े जाने वाले हैं। हालांकि तथ्य यह है कि पुरानी इमारतों की तीन श्रेणियां हैं: पहला, संसद भवन, नॉर्थ और साउथ ब्लॉक जैसे पुराने ऐतिहासिक भवन, जिन्हें बनाए रखा जाएगा और उनका पुनर्निमाण किया जाएगा। दूसरा, नया संसद भवन, संयुक्त केंद्रीय सचिवालय, एसपीजी कॉम्प्लेक्स, प्रधानमंत्री और उपराष्ट्रपति आवास जैसे नए भवन साथ-साथ बनाए जाएंगे और तीसरा, कुछ भवन जिन्हें वास्तव में ध्वस्त किया जाएगा। अब यह कोई मुद्दा नहीं है कि स्वतंत्र भारत में निर्मित कृषि भवन, निर्माण भवन, रक्षा भवन, शास्त्री भवन, उद्योग भवन, आईजीएनसीए एनेक्सी जैसे भवन खूबसूरती के भव्य स्वरूप हैं। अधिकांश अपने समय के पीडब्ल्यूडी निर्मित भवन हैं जो आज के काम के माहौल को देखते हुए रखरखाव के मामले में काफी महंगे हैं, और आधुनिक कुशल भवनों के लिए आवश्यक आदर्श साज़ो-सामान से लैस नहीं हैं।
अनेक प्रकार के अलग-अलग आंकड़ों के मुकाबले नई संसद की लागत 971 करोड़ रुपये (133 मिलियन यूएस डॉलर) होगी। यह निर्माण भारतीय बुनियादी ढांचे जगत की नामचीन कंपनी टाटा और शापूरजी पल्लोनजी द्वारा किया जा रहा है। 4 वर्षों में तैयार होने वाले इस संपूर्ण सेंट्रल विस्टा की कुल लागत 20,000 करोड़ रुपये है जो सरकार के कुल वार्षिक कर राजस्व 20 लाख करोड़ के हर साल के कर राजस्व का केवल 0.25% है। ऐसे में यह कोई बेहद हैरान करने वाली और आपराधिक लापरवाही नहीं है, जैसा कि कई समीक्षक हमें विश्वास दिलाना चाहेंगे।
फिर यह तर्क दिया गया कि क्या महामारी के साथ वास्तव में यह निर्माण जारी रखने का सही समय है? मध्ययुगीन काल में, अर्थशास्त्रियों और फैंसी आर्थिक मॉडल की सहायता के बिना, यहां तक कि बिना चुने हुए राजाओं और नवाबों को भी यह समझ में आया था कि अकाल और महामारी के दौरान सार्वजनिक कार्यों पर पैसा खर्च किया जाए, ताकि इससे अधिक मात्रा में आवश्यक रोजगार पैदा किया जा सके, अर्थव्यवस्था में धन को डाला जा सके और देश के लिए आवश्यक संपत्ति का निर्माण करते हुए इसके कई गुणा प्रभावों का लाभ लिया जा सके। आज सभी समृद्ध राष्ट्र सार्वजनिक तौर पर खर्च में उदारता और तरलता लाकर अपनी अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने में जुटे हैं। तो फिर ये “दोष निकालने के लिए आलोचना” करने वाले विश्लेषक क्या कहना चाहते हैं- सभी सार्वजनिक खर्च को रोक दें और भविष्य की आर्थिक गतिविधि की स्थिति को और कमज़ोर बना दें। यदि ऐसा है तो और कौन-कौन सी परियोजनाओं को बंद कर देना चाहिए। कुछ सड़कों और पटरियां की योजनाऐं अथवा कुछ आवास की हो सकती हैं। पर यह कौन तय करेगा कि कौन सी रोकनी है? जो कुछ भी निर्माण किया जा रहा है उसको रोकते हुए चरमराती हुई अर्थव्यवस्था के पहियों को रुकने दो और आर्थिक संकट को और बड़ा होने दो। क्या हम यही प्रस्ताव दे रहे हैं?
फिर वे हमें बताते हैं कि इससे बेहतर होता कि यह पैसा स्वास्थ्य देखभाल पर खर्च किया जाता। यह सच है लेकिन महामारी से लड़ने की समस्या पैसे की नहीं है, बल्कि क्षमता की है- प्रशिक्षित डॉक्टर, अस्पताल के बिस्तर, उपकरण आदि जैसी समस्याओं को पैसा फेंक कर रातों-रात नहीं खरीदा जा सकता है, बल्कि इन्हें समय के साथ ही तैयार किया जाता है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि इनका निर्माण अत्यंत तत्परता से किया जाना चाहिए, लेकिन इन सबका बुनियादी ढांचे के निर्माण से क्या लेना-देना है। लेकिन यदि मानसिकता ही अजीबो-गरीब कारणों और वर्तमान सरकार के प्रति शत्रुता का भाव रखते हुए सरकारी कामकाज और सार्वजनिक कार्यों को रोकने की है, तो हमें एक मरणासन्न अर्थव्यवस्था और एक व्यापक बर्बादी के लिए तैयार रहना चाहिए।
पुरानी इमारतें उस जमाने में बनी थीं, जब कारें दुर्लभ लग्जरी थीं। मेट्रो की कल्पना भी नहीं की गई थी। आज वाणिज्यिक और सरकारी केंद्रों को परिवहन के साथ निर्बाध रूप से जोड़ा जाना है। आगे जाकर, प्रस्तावित सेंट्रल विस्टा मेट्रो की पीली और बैंगनी लाइनों से जुड़ेगा, जिससे सचिवालय में आने वाले सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों की छोटी कारों को पार्क करने मे होने वाली परेशानी और इनसे होने वाली अनावश्यक भीड़-भाड़ को समाप्त किया जा सकेगा। हम हवाई अड्डों और शहरी केंद्रों के निकासी मार्गो को ध्यान में रखकर किए गए विकास (टीओडी) पर हैरान होते हैं और अपनी विदेश यात्रा से लौटते समय इन्हें देखकर आनंद का अनुभव भी करते हैं, लेकिन घर लौटते के बाद, हम उन्हीं पुरानी और बेकार शहरी व्यवस्था के प्रारूपों को बनाए रखना चाहते हैं। लंबे समय को ध्यान में रखकर बनाई गई व्यवस्थित टीओडी कार न सिर्फ हाइड्रो-कार्बन के जलने की निर्भरता को कम करती हैं बल्कि कुछ पेड़ों जिन्हें काटा जाना है, उनके लिए पर्यावरणीय लाभ को भी सुनिश्चित करती हैं क्योंकि ऐसे किसी भी मामले में इन पेड़ों को प्रतिपूरक वनरोपण योजना के तहत और अधिक संख्या में कहीं और लगाया जाता है।
सेंट्रल विस्टा की योजनाओं और नक्शे का सावधानीपूर्वक विश्लेषण विस्तृत फुटपाथ, पैदल यात्री अंडरपास, नहरों पर पुल, बेंच, पेड़ और आधुनिक सुविधाओं के प्रावधानों के साथ अधिक हरे-भरे क्षेत्रों को दर्शाता है। लगभग पूरी पुरानी और उत्तर-पूर्वी दिल्ली, शाम को ऐतिहासिक रूप से खुले स्थानों के इस क्षेत्र के चारों ओर इकट्ठा होती है, जिनके पास बातचीत करने के लिए वहाँ ऐसी कोई सुविधा नहीं है। पेड़ों, पर्यावरण, विरासत के नाम पर पूछने के लिए एक वैध सवाल है कि पिछले 7 दशकों में इन खुले हरे-भरे स्थानों का आनंद लेने के इच्छुक परिवारों के लिए बुनियादी सुविधाओं का निर्माण करने से आपको किसने रोका?
भारत में अनावश्यक बात करने वाला मध्यम वर्ग सबसे ज्यादा पारदर्शिता और भ्रष्टाचार से परहेज़ करता है। खैर, कभी-कभी यह बहुत सही होता है। अब, भारतीय शहरी क्षेत्र की कहानी लें तो यह ऐसे उदाहरणों से भरी पड़ी है जहां प्रधानमंत्रियों द्वारा शहरों, प्रतिष्ठित इमारतों, पुलों आदि के विकास के लिए विदेशी वास्तुकारों को नामित किया गया था और यह पंडित नेहरू के समय में सबसे अधिक रूप से किया गया था। चंडीगढ़ का निर्माण फ्रेंच ले कॉर्बूसियर ने किया था। जर्मन टाउन प्लानर और आर्किटेक्ट ओटो कोनिग्सबर्गर द्वारा उड़ीसा की नई राजधानी भुवनेश्वर का निर्माण किया गया था, जो बाद में भारत सरकार में आवास निदेशक बने। पश्चिम बंगाल के स्टील टाउन दुर्गापुर को दो अमेरिकी आर्किटेक्ट जोसेफ एलन स्टीन और बेंजामिन पोल्क ने डिजाइन किया था। प्रसिद्ध स्टीन ने प्रतिष्ठित इंडिया इंटरनेशनल सेंटर और इंडिया हैबिटेट सेंटर भी बनाया। इस यह सूची और आगे बढ़ सकती है और जब उनकी तुलना बिना योजना के तैयार शहरी भीड़-भाड़ से युक्त शहरों से की जाती है, जिनके रूप में ही आमतौर पर भारत को दिखाया जाता है, तो यह कहना भी उचित होगा कि परिणाम बहुत अच्छे रहे हैं। लेकिन आज का भारत उन घोटालों में से एक है, जहां किसी बात को भी उचित दिखाने के लिए एक विभाजनकारी नीति और जबरदस्त बहस दोनों एक प्रशासनिक दुःस्वप्न और राजनीतिक असंभवना के तौर पर मौजूद हैं।
सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट के डिजाइन और निर्माण के लिए अपनाई गई प्रक्रिया की जांच से पता चलता है कि इस प्रतिस्पर्धा के लिए मानदंड वास्तुकला परिषद द्वारा निर्धारित किए गए थे, जिसमें यह बात स्पष्ट रूप से शामिल थी कि कोई भी इमारत इंडिया गेट के ऊपर नहीं बनेगी। परियोजना के लिए आधा दर्जन प्रसिद्ध डिजाइन और वास्तुशिल्प फर्मों द्वारा बोली लगाई गई थी और बिमल पटेल के नेतृत्व वाली एचसीपी डिजाइन प्लानिंग एंड मैनेजमैंट ने यह बोली जीती थी। अब यह तथ्य कि वह गुजरात से है, तो फिर यह भी लगातार चर्चा और अफवाह फैलाने का मुद्दा बन गया। खैर, बिमल पटेल ने जो काम किया है, उसका फैसला समय करेगा, लेकिन बच्चे के जन्म से पहले ही इन आलोचकों ने इस बच्चे को कुरूप बता दिया है। हालाकि निष्पक्षता और इन पूर्वाग्रहों को दूर रखने के लिए बहुत कुछ है।
फिर भी, परियोजना प्रस्तावक या ग्राहक ने दिल्ली शहरी कला आयोग (डीयूएसी) से वैचारिक स्वीकृति ली। केंद्रीय सतर्कता आयोग द्वारा वित्तीय निर्णयों को मंजूरी दी गई। वित्त मंत्रालय से मौद्रिक आवंटन प्रदान किया गया था। नई दिल्ली नगर निगम (एनडीएमसी) द्वारा परियोजना मूल्यांकन अध्ययन किया गया और फिर अंत में केंद्रीय लोक निर्माण विभाग (सीपीडब्ल्यूडी) द्वारा निविदा और कार्यों को शुरू करने की मंजूरी दी गई। इसके निर्माण को दी गई कानूनी चुनौती की सुनवाई माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा की गई थी।
अब इस सब के साथ, यदि तर्क यह भी है कि इन सभी निकायों से समझौता किया गया है, तो हम खुद को एक ऐसे देश के रूप में भी बता सकते हैं और इस तर्क को स्वीकार कर सकते हैं कि टीवी स्टूडियो में चिल्लाने और व्हाट्स ऐप विश्वविद्यालय पर अपना दिल बहलाने वाले इन लोगों के पास ही अब देश चलाने के लिए बुद्धि का भंडार बचा है।
यह स्पष्ट है कि सेंट्रल विस्टा परियोजना की आलोचना तथ्यों और आवश्यकता पर नहीं बल्कि समय स्थिति, अतीत की यादों, नैतिकता, पर्यावरण, पक्षियों, पेड़ों, सौंदर्यशास्त्र और जो आपको सबसे अच्छा लगता हो ऐसे सभी प्रकार के तर्कों पर आधारित है। एक तरफा प्रवचन की तरह, इसे एक आलोचक ने “हृदयहीन” इमारत भी कहा। जबकि विडंबना यह है कि अगर इतिहास में झांके तो पता चलता है कि हमारे शोषक औपनिवेशिक आकाओं द्वारा बनाई गई इमारतें हमारे गुलाम राष्ट्र पर की गईं उनकी महान “मेहरबानी” के टुकड़े थे।
(लेखक पूर्व आईपीएस अधिकारी और एक प्रौद्योगिकी उद्यमी हैं)