रांची। होली आने से पहले ही प्रकृति ने अपनी तैयारी पूरी कर ली है। जंगलों में पलाश के फूल अंगारों की भांति दमकते दिखाई दे रहे हैं। ये कोई साधारण फूल नहीं हैं, बल्कि इस फूल की चर्चा साहित्य से लेकर आयुर्वेद तक है। एक तरफ आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी इसे बसंत ऋतु का फूल कहते हैं, तो भवानी प्रसाद मिश्र को पलाश के फूल सतपुड़ा के घने जंगलों में दिखाई देते हैं। यूं तो इसे टेसू का फूल भी कहा जाता है, जो भारत के अधिकांश भागों में मिलता है।
लेकिन, झारखंड के दामोदर घाटी में यह फूल विशेष तौर पर दिखाई देते हैं। घने जंगलों के बीच ठूंठे पेड़ों पर खिले पलाश के फूल दूर से ही लोगों को अपनी तरफ आकर्षित करने लगते हैं। यह बात सच है कि हर मौसम अपनी तरह से धरती पर उतरता है और प्रकृति में अपने ढंग से रंग भरता है। लेकिन, बसंत ऋतु और पलाश के फूल की बात ही कुछ और है। सच कहा जाए तो यही प्रकृति का सर्वोत्तम श्रृंगार है।
आमतौर पर बसंत ऋतु के समय पलाश के फूल खिलने लगते हैं। होली के आसपास यह फूल चरम पर आकर प्रकृति की सुंदरता बढ़ाता है लेकिन, पलाश के फूल की केवल यही खासियत नहीं है, बल्कि इसमें औषधीय गुणों की भरमार है। आयुर्वेद के जानकार मानते हैं कि पलाश के फूल महज प्रकृति की शोभा नहीं हैं, इस फूल में औषधीय गुणों की खान है। इससे सुंदर प्राकृतिक रंग बनाया जाता है। बेशक आज केमिकल युक्त रंगों का प्रचलन बढ़ गया है, लेकिन कुछेक दशक पहले तक पलाश के फूलों से रंग तैयार किए जाते थे और उससे होली खेली जाती थी। दामोदर घाटी के बज्र देहात में लोग-बाग आज भी पलाश के फूल से प्राकृतिक रंग तैयार करते हैं लेकिन, बदलती जीवन शैली में लोग इस फूल की गुणवत्ता को भूलते जा रहे हैं। इसके औषधीय प्रयोजन से भी नई पीढ़ी अनजान है।
आयुर्वेद की जानकारी रखने वालों का मानना है कि इस फूल में चर्म रोग से लेकर आंख की रोशनी को बढ़ाने तक के गुण मौजूद हैं। इसके पत्तों का भी व्यावसायिक इस्तेमाल होता है। वे पत्ते दोना और पत्तल बनाने के काम आते हैं। पलाश के औषधीय गुण के कारण ही इसको जीवन में शामिल करने की बात जगह-जगह कही गई है। पलाश के पेड़ की छाल को उबालकर सेवन करने से पथरी और यकृत रोग दूर होने का दावा किया जाता है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के ‘लोकल फॉर वोकल’ के नारों से प्रभावित होकर पलाश के फूल की तरफ लोगों का ध्यान गया है। इन फूलों का संग्रह कर प्राकृतिक रंग तैयार करने का काम कई स्थानों पर हो रहा है, ताकि होली का पर्व प्राकृतिक रंग के साथ मनाया जा सके। बाजार में जैसे-जैसे प्राकृतिक रंगों की मांग बढ़ रही है, वैसे-वैसे पलाश का महत्व लोग समझने लगे हैं।
लिहाजा पलाश की मांग बढ़ गई है। गांव के बूढ़े बुजुर्ग बताते हैं कि सेमल और पलाश के फूल को सुखाकर चूर्ण बनाया जाता है। इस चूर्ण को कुछ देर के लिए पानी में डालकर छाना जाता है, जिससे पानी लाल हो जाता है। इसके चूर्ण को गेंदे और अपराजिता के फूल के चूर्ण के साथ मिलाकर पीसा जाता है। इसके बाद प्राकृतिक अबीर तैयार हो जाता है।