- भारत ने 60 के दशक में बनाया था पहला स्वदेशी लड़ाकू विमान
- तकनीकी खामियों के चलते 1982 में वायुसेना ने किया था रिटायर
- एचएएल ने बनाये थे 147 विमान, दो अभी भी रखे हैं म्यूजियम में
नई दिल्ली। लाइट कॉम्बैट एयरक्राफ्ट (एलसीए) तेजस एमके-1ए के सौदे ने भारत के पहले स्वदेशी जेट ‘मारुत’ को भुला दिया है जिसने 1971 की जंग में पाकिस्तानियों के छक्के छुड़ा दिए थे। 1960 के दशक का यह लड़ाकू बमवर्षक विमान उस समय की तकनीक के मुकाबले काफी उन्नत था। 147 विमानों में से सिर्फ दो विमान बचे हैं जिनमें एक एचएएल के बेंगलुरु स्थित हेरिटेज काम्प्लेक्स में और दूसरा म्यूनिख के एक म्यूजियम में रखा है।
एयरक्राफ्ट डिजाइन और उत्पादन के क्षेत्र में भारत को आत्मनिर्भर बनाने के लिए 50 के दशक में वायुसेना से भारतीय डिजाइन के एयरक्राफ्ट से संबंधित जरूरतें पूछी गईं। विमान का डिजाइन करने की जिम्मेदारी एचएएल के सौंपी गई। भारत सरकार के बुलावे परअगस्त, 1956 में जर्मन एयरोनॉटिकल इंजीनियर कर्ट वाल्डेमर टैंक और उनके डिप्टी हेर मिटेलहपर बेंगलुरू पहुंचे। उन्हें एचएफ-24 विमान का डिजाइन करने वाली टीम की अगुआई करने का जिम्मा सौंपा गया। इस टीम में तीन भारतीय डिजाइनर थे और विमान को विकसित करने का जिम्मा दोनों जर्मनों पर था। अप्रैल, 1959 में उन्होंने लकड़ी के ग्लाइडर का पहला प्रोटोटाइप बनाया। इस टू सीटर ग्लाइडर ने 24 मार्च, 1960 तक 78 सफल उड़ानें भरीं। इस तरह हिन्दुस्तान एयरक्राफ्ट लिमिटेड (एचएएल) ने 1960 के दशक में जर्मन एयरोनॉटिकल इंजीनियर कर्ट वाल्डेमर टैंक के सहयोग से स्वदेशी लड़ाकू बमवर्षक विमान एचएफ-24 ‘मारुत’ तैयार किया था।
भारत के इस पहले जेट विमान को स्पिरिट ऑफ द टेम्पेस्ट यानी ‘तूफान की आत्मा’ की संज्ञा दी गई। सफल उत्पादन और सक्रिय सेवा में जाने वाला यह पहला एशियाई जेट लड़ाकू विमान था। 17 जून, 1961 को इसने अपनी पहली उड़ान भरी और 1 अप्रैल 1967 को पहला मारुत जेट आधिकारिक तौर पर भारतीय वायुसेना को दिया गया था। भारतीय वायुसेना के लिए कुल 147 जेट बनाए गए थे। इनका इस्तेमाल मुख्य रूप से जमीनी हमले के मिशन के लिए किया गया। इस बीच, अप्रैल 1969 में वायुसेना की टाइगर हेड स्क्वाड्रन को मारुत जेट से लैस किया गया। दो स्क्वाड्रन ने 1971 में पाकिस्तान के साथ हुई जंग में हिस्सा लिया। यह विमान राजस्थान सेक्टर में जमीनी टुकड़ियों की मदद कर रहे थे। मारुत ने एक पखवारे में 300 से ज्यादा सैन्य उड़ानें भरीं। न ही किसी विमान को मार गिराया गया और न ही किसी को दुश्मन एयरक्राफ्ट से नुकसान पहुंचा।
मारुत ने भारत के साथ 1971 में पाकिस्तान से हुई जंग में अहम भूमिका निभाई। इसके बाद विशेष रूप से लोंगेवाला की लड़ाई में भाग लिया। दिसम्बर, 1973 तक तीसरी स्क्वाड्रन को मारुत से लैस किया गया। तकनीकी खामियों के चलते 1982 तक मारुत विमान तेजी से खत्म होने लगे जिसके चलते एयरफोर्स हेडक्वार्टर ने एचएफ-24 को हटाने का फैसला किया। दशक के अंत तक धीरे-धीरे सभी विमान समाप्त हो गए। 147 विमानों में से सिर्फ दो विमान बचे हैं जिनमें एक एचएएल के बेंगलुरु स्थित हेरिटेज काम्प्लेक्स में और दूसरा म्यूनिख के एक म्यूजियम में रखा है। मारुत विमान में इस्तेमाल किये गये इंजनों में मुख्य रूप से कमी थी। इनके लिए बेहतर इंजन या वैकल्पिक पावरप्लांट विकसित करने के कोई ठोस प्रयास नहीं किये गए जबकि शुरू में इसे सक्षम इंटरसेप्टर विमान या सुपरसोनिक सक्षम लड़ाकू विमान जैसा विकसित करने की कल्पना की गई थी।
एयरक्राफ्ट विशेषज्ञों के मुताबिक नीची उड़ानों में मारुत का कोई जवाब नहीं था लेकिन बेहद फुर्ती से काम करने में ये उतने सक्षम नहीं थे। इनमें मेंटेनेंस की भी समस्या थी। 1982 तक वायुसेना का मानना था कि इनका इस्तेमाल तत्कालीन जरूरतों को देखते हुए नहीं किया जा सकता था। यह विमान 60 के दशक में जिस तकनीक के साथ बनाये गए थे, अगर इसी तकनीक को आगे की सरकारें विकसित करने में लगी रहतीं तो आज विमानों के डिजाइन और विकास की दिशा में भारत बहुत आगे होता।