कम अवधि वाले किस्मों के बीज गुणन कार्यक्रमों को बढ़ावा देने पर जोर

कृषि झारखंड
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बीएयू के बीजोत्पादन परियोजनाओं के पांच वर्षो के कार्यो की समीक्षात्मक बैठक

रांची। आईसीएआर-भारतीय बीज विज्ञान संस्थान (आईआईएसएस), मऊ द्वारा सोमवार को वर्चुअल माध्यम से आईसीएआर प्रायोजित प्रजनक बीज और बीज उत्पादन परियोजनाओं के पांच वर्षो की उपलब्धियों की समीक्षा की गई। मौके पर डॉ एसए पाटिल की अध्यक्षता में डॉ एम डाडलीनी, डॉ नायडू और आईआईएसएस निदेशक डॉ संजय कुमार के दल ने बिरसा कृषि विश्वविद्यालय द्वारा संचालित आईसीएआर प्रायोजित बीजोत्पादन परियोजनाओं के पांच वर्षो के उपलब्धियों की समीक्षा की।

बीएयू से निदेशक बीज एवं प्रक्षेत्र डॉ आरपी सिंह के नेतृत्व में डॉ सुप्रिया सिंह और डॉ रवि कुमार ने समीक्षात्मक बैठक में भाग लिया।मौके परडॉ सुप्रिया सिंह ने दल के सामने वर्ष 2015-16 से वर्ष 2019-20 तक धान्य, दलहनी एवं तेलहनी फसलों के प्रजनक, आधार एवं सत्यापित बीजों का उत्पादन, राज्य के किसानों के सहयोग से पारस्परिक सीड विलेज कार्यक्रमों के तहत दलहनी एवं तेलहनी फसलों के सत्यापित बीज का उत्पादन, प्रशिक्षण एवं प्रक्षेत्र दिवस के माध्यमों से बीजोत्पादन तकनीकी का प्रसार एवं बीजोत्पादन में बाधाओं पर विस्तृत प्रतिवेदन प्रस्तुत किया।

आईसीएआर दल ने बीएयू के बीजोत्पादन कार्यक्रमों की सराहना की। दल ने प्रदेश के कृषि पारिस्थितिकी के उपयुक्त विभिन्न फसलों की कम अवधि वाले किस्मों के बीज गुणन कार्यक्रमों को बढ़ावा देने पर जोर दिया।

निदेशक बीज एवं प्रक्षेत्र डॉ आरपी सिंह ने बताया कि राज्य की करीब 70 प्रतिशत खेती योग्य भूमि में एक फसली खेती होती है। 30 प्रतिशत से अधिक ऊपरी भूमि, अनियमित वर्षपात एवं वर्षाकाल में वर्षा की अवधि ज्यादा आदि वजहों से बीज उत्पादन में कमी होती है। कृषि विज्ञान केंद्र एवं किसानों के पारस्परिक सहयोग से राज्य में  बीजोत्पादन कार्यक्रम को गति मिली है।

प्रदेश में मोटे अनाज वाली फसलों में 3 नई किस्मों व तेलहनी फसलों में 3 नई किस्मों को बीजोत्पादन कार्यक्रम में जोड़ा गया है। विगत पांच वर्षो में चना, मूंगफली, सोयाबीन एवं तीसी के बीजोत्पादन में पर्याप्त वृद्धि हुई है, जबकि धान व अन्य धान्य फसलों का बीजोत्पादन में उतार-चढ़ाव रहा है।

डॉ सिंह ने बताया कि विश्वविद्यालय के द्वारा जलवायु सहनशील एवं कम अवधि वाली धान्य, दलहनी एवं तेलहनी फसलों के नई प्रजातियों के माध्यम से प्रसार-प्रचार से राज्य में बीज विस्थापन की दर, उत्पादन एवं उत्पादकता में बढ़ोतरी हुई है। राज्य में फसल सघनता एवं कृषि स्थायित्व में सुधार हुआ है।