नवीन पी सिंह
प्रत्येक संकट लंबित सुधारों पर आगे बढ़ने के कुछ अवसर प्रदान करता है। शायद कोविड-19 हमारे लिए एक अधिक व्यावहारिक और सार्थक साधन के तौर पर कृषि के लिए प्रतिकूल नीतियों को दुरुस्त करने के अवसर के रूप में सामने आया। यह स्पष्ट है कि आजादी के बाद कोई भी वर्ष ऐसा नहीं रहा है जब नए कृषि संबंधी उपाय न किए गए हों अथवा मौजूदा नीति में बदलाव न किया गया हो। इसके बावजूद भी छोटे और सीमांत किसानों की आर्थिक स्थिति और सामाजिक स्थिति में सुधार काफी हद तक गैर-कृषि और अन्य साधनों से हुई आय पर ही निर्भर रहा है।
कृषि क्षेत्र में सुधार की परम्परा की शुरुआत, रॉयल कमीशन ऑन एग्रीकल्चर, 1928 की सिफारिश के आधार पर तैयार किए गए एक मॉडल विधेयक से होती है। 1960 के दशक में कृषि उत्पादन बाजार विनियमन (एपीएमआर) अधिनियम के पारित होने के साथ कृषि विपणन कार्यप्रणालियां प्रारंभ हुईं और तब से इसने (स्थानीय व्यापारियों द्वारा निष्पादित) एक एकाधिकार से लेकर (किसान-व्यापारी संबंध) अल्पाधिकार तक के एक क्रमिक बदलाव के वाहक के रूप में ही कार्य किया। यह बदलाव काफी पेचीदा है और नए कानूनों की मंजूरी तक एक-दूसरे पर निर्भर होते हुए भी लाभरहित ही प्रतीत होता है। नया कानून व्यापारियों और साहूकारों के चंगुल से किसानों को मुक्ति देने के साथ उन्हें अपनी उपज को एपीएमसी से अधिक मूल्य पर बेचने का अधिकार प्रदान करते हुए इस क्षेत्र में अनुचित एकाधिकार को तोड़ने/समाप्त करने का एक प्रयास है।
गांवों/ग्रामीण क्षेत्रों में यह स्पष्ट रूप से दिखाई देता है कि कमीशन एजेंट, बिचौलिए और व्यापारी, किसानों की तुलना में अमीर हैं। कारण स्पष्ट और भली-भांति विदित है यानि जहां भी संभव हो वहां भारी मुनाफा कमाना और किसानों (विशेष रूप से छोटे और सीमांत) का शोषण करना। 1980 के दशक से कई समितियों और आयोगों ने इस असंतुलन को सही करने के लिए सक्रिय रूप से सुझाव दिए हैं, लेकिन शासन ने इन पर ईमानदारी से काम नहीं किया और चापलूसी से परिपूर्ण रणनीति के चलते, इस संबंध में लाभरहित योजनाओं को अंजाम दिया गया। यह अभी भी हर किसी के लिए एक रहस्य ही है कि अधिक कीमती फलों, सब्जियों और अन्य बागवानी फसलों को उगाने वाले किसानों की तुलना में प्रधान अधिक संपन्न क्यों हैं।
वास्तव में उन राज्यों में किसान की आय में वृद्धि हुई है जहां एमएसपी के माध्यम से अनाज का बड़ा हिस्सा प्राप्त किया गया है और कुछ राज्यों में भौगोलिक आपदा स्थिति के कारण उनकी समृद्धि के स्तर की तुलना अन्य राज्यों से नहीं की जा सकती है। इसलिए क्षेत्रों, राज्यों और किसानों के बीच एकरूपता लाने की आवश्यकता है। कुल मिलाकर, अधिनियमित कानूनों के माध्यम से किसानों के बीच असमानताओं को कम करने की उम्मीद की जा सकती है।
सुधारों की आवश्यकताओं को बहुत लंबे समय से महसूस किया गया है और इससे पहले कई राज्यों ने एपीएमसी को हटाने की कोशिश की, और कुछ सफल भी हुए हैं। यह स्पष्ट है कि उपभोक्ता तक पहुंचने से पहले, कृषि उत्पादों में आदान-प्रदान की प्रक्रिया के दौरान किसान की आय में 11 से 12 प्रतिशत की वृद्धि करने की क्षमता है। कृषि बाजार को उदार बनाने का तथ्य अभी का नहीं है अपितु इस पर शंकरलाल गुरु समिति 2001 की सिफारिशों और अन्य शोध अध्ययनों के अनुरूप पिछले दो दशकों से कवायत जारी है। कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) अधिनियम 2020, कृषक (सशक्तिकरण और संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवाओं पर करार अधिनियम, 2020, और आवश्यक वस्तु (संशोधन) अधिनियम, 2020 जैसे तीन समेकित अधिनियमों का मुख्य प्रयोजन कृषि वस्तुओं को उपभोक्ता-प्रिय बनाने के अलावा उत्पादक को होने वाले भारी नुकसान को कम करना है।
इन लाभों के अलावा, विपणन में चुनाव और विकल्प, एपीएमसी के साथ प्रतिस्पर्धा रखने वाले व्यापारियों के साथ बेहतर मूल्य तय करना और इसकी प्राप्ति, बाजार के बुनियादी ढांचे में निवेश को आकर्षित करना (जहां कृषि में निजी निवेश का 80 प्रतिशत से अधिक सिर्फ किसानों के द्वारा किया जाता है), निपुणता के अनुसार लाभ, बेहतर आदानों (इनपुट्स) तक पहुंच, बेहतर कृषि पद्धतियां और प्रौद्योगिकी आदि से देशभर के कृषि क्षेत्र में आसानी होगी। इसके अलावा, खेतों तक बुनियादी सुविधाओं के निर्माण के द्वारा सीधे खरीद की अनुमति देने से उत्पाद को उपभोक्ता तक पहुंचने में लगने वाले समय में कमी आएगी, ढुलाई में होने वाला नुकसान कम होगा और उपज की गुणवत्ता में किसी प्रकार की कमी नहीं होगी।
अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार, किसान अपनी उपज को खेत, कारखाने, गोदाम या कोल्ड स्टोरेज पर बिना किसी बाधा और बिना किसी बाजार शुल्क या बिना किसी अन्य शुल्क के बाजार में बेचने के लिए स्वतंत्र है जो पहले एपीएमसी अधिनियम के तहत लागू थे। एपीएमसी की मौजूदगी पर भी किसी भी तरह का जोखिम नहीं हैं, लेकिन किसानों को प्रतिस्पर्धा का सामना भी करना पड़ेगा क्योंकि अपनी उपज के लिए उचित मूल्य प्राप्त करने हेतु उनके लिए एक समानांतर तंत्र होगा।
एमएसपी की निरंतरता के लिए आश्वासनों को पूरा करने के लिए संशोधनों की मांग और सुझाव दिए गए हैं।
साथ ही, यह भी मांग की गई है कि निजी खरीद एमएसपी से कम नहीं होगी, और इसे कानून का हिस्सा होना चाहिए। इस तथ्य को देखते हुए कि अब तक मुख्य रूप से गेहूं और चावल की खेती करने वाले करीब 6 प्रतिशत किसानों को ही एमएसपी का लाभ मिलता रहा है। इसमें 2-3 लाख करोड़ रुपये की वार्षिक आमदनी होती है और इसमें सभी भुगतानों की लागत और परिवार का श्रम मूल्य भी शामिल होता हैं। ऐसे अध्ययन हैं जो संकेत देते हैं कि एमएसपी में 10 प्रतिशत की वृद्धि से जीडीपी में 0.33 प्रतिशत की कमी और निवेश में 1.9 प्रतिशत की कमी होती है, और कुल मूल्य सूचकांक में 1.5 प्रतिशत तक की वृद्धि होती है। इसके अलावा, एमएसपी को वैध बनाने के गंभीर आर्थिक परिणाम हो सकते हैं क्योंकि ये कृषि उत्पादों को वैश्विक प्रतिस्पर्धा से दूर करते हैं।
अनुबंध कृषि के प्रावधान में, कॉरपोरेट्स के लिए किसान की जमीन को अधिग्रहण करना असंभव है, क्योंकि अनुबंध उपज के लिए है, न कि जमीन के लिए। इस तथ्य को लेकर जारी अनुचित अटकलें और भय भी बड़े पैमाने पर इस आंदोलन का कारण है। इसके अलावा, यह कानून अनुबंध के तहत किसान की भूमि पर व्यापारियों/निगमों द्वारा किसी भी प्रकार के बुनियादी ढांचे के निर्माण की अनुमति नहीं देता है। इसके अलावा सफलतापूर्वक अनुबंध कृषि के कई अन्य उदाहरण स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं, जिनमें बीज उत्पादन और गन्ने की सफल अनुबंध कृषि सबसे अच्छे उदाहरणों में से एक हैं जो पिछले कई वर्षों से जारी है। देश में 60 प्रतिशत से अधिक ब्रॉयलर उत्पादन अनुबंध कृषि के माध्यम से होता है और यहां तक कि डेयरी मॉडल भी अनुबंध पर आधारित होता है। अनुबंध कृषि, उत्पादक को किसी भी मामले में लाभ अर्जित करने के अवसरों की एक विस्तृत श्रृंखला के साथ मूल्य आश्वासन भी प्रदान करती है। एक बार जब अनुबंध कृषि पूरी तरह से शुरू हो जाती है, तो संसाधनों के कुशल उपयोग को लिए वस्तुवार/ क्षेत्रवार ध्यान केंद्रित करने के लिए एफपीओ का लाभ उठाया जा सकता है।
इससे मंडियों पर लगने वाले शुल्कों और करों (8.5 प्रतिशत जो जीएसटी से पहले 14 प्रतिशत था) के माध्यम से कुछ राज्य सरकार की हजारों करोड़ की कमाई समाप्त हो सकती है। इसे नुकसान के रूप में नहीं देखा जा सकता क्योंकि मंडी कर एपीएमसी पूंजी में शामिल हैं और अब निर्धारित किए गए उपायों के तहत यह राशि उत्पादक और इसका एक अंश उपभोक्ता को भी मिलता है।
इस बात को लेकर भी आशंका है कि कृषि-विपणन बुनियादी ढांचे में निवेश को बढ़ाने और कृषि उत्पाद की कीमतों में अस्थिरता को कम करने के लिए आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन बड़े कृषि-व्यवसायिक घरानों को कृषि उत्पादों पर अपना नियंत्रण स्थापित करने में सक्षम बनायेगा और इससे बाजार में वस्तुओं की कृत्रिम कमी और खाद्य मुद्रास्फीति को बढ़ावा मिलेगा। जबकि कानून के मुताबिक, भंडारण सीमा पर इसके वर्तमान प्रावधानों के अनुसार, खराब न होने वाले खाद्य पदार्थों की खुदरा कीमतों में 50 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि की ‘अपवाद स्वरूप परिस्थितियों’ और बागवानी उत्पाद के आधार मूल्य से 100 प्रतिशत से अधिक की स्थिति में भंडारण सीमा तय की जाएगी। बेंच मार्क और आधार पिछले 12 महीनों में खुदरा कीमतों अथवा पिछले पांच वर्षों के औसत खुदरा मूल्यों में से जो भी कम हो, वहीं निर्धारित किया जाएगा।
कुल मिलाकर, ये संशोधन विलंबित हैं और इनसे कृषि विपणन प्रणाली को मुक्त करने की आवश्यकता है जिसने किसान की आय को देश के आर्थिक विकास के साथ तेजी से बढ़ने से रोका हुआ है। सरकार को ई-नाम के अंतर्गत प्रौद्योगिकी समर्थ प्लेटफॉर्मों, एफपीओ के विशाल नेटवर्क, प्रौद्योगिकी से लैस स्टार्टअप, मोबाइल और डिजिटल विपणन विस्तार और लॉजिस्टिक्स हेतु कृषि क्षेत्र में व्यापक स्तर पर बुनियादी ढांचे को तैयार करने के लिए जमीनी स्तर पर कार्य करने हेतु लागू किए गए कानूनों की विशेषताओं की जानकारी को फैलाने के लिए दृढ़ता से मुखर होकर सामने आना चाहिए।
इस प्रकार, ये कानून कृषि विपणन में सुधार और कृषि क्षेत्र के जबरदस्त विकास में अत्यंत प्रभावी बदलाव की शुरुआत के साथ वक्त की जरूरत हैं। छोटे और सीमांत किसानों को उनके हक से सशक्तिकरण की दिशा में मोड़ने और उन्हें अंतर्राष्ट्रीय बाजारों के अनुरूप उत्पादन और प्रतिस्पर्धा करने में सक्षम बनाने के लिए आवश्यक हैं।
(लेखक भारत सरकार के कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय के कृषि लागत और मूल्य आयोग (सीएसीपी), कृषि भवन, नई दिल्ली में सदस्य (आधिकारिक) हैं, लेख में व्यक्त किए गए विचार पूरी तरह से व्यक्तिगत हैं)