- बीएयू में तेलहन वैज्ञानिकों की राष्ट्रीय बैठक शुरू
रांची। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के उप महानिदेशक (फसल विज्ञान) डॉ डीके यादव ने कहा है कि झारखंड तीसी फसल का क्षेत्र, उत्पादन और उत्पादकता बढ़ाने के लिए संभावनाओं से भरा राज्य है। क्योंकि यह फसल ज्यादातर उपेक्षित क्षेत्रों में सीमांत एवं लघु किसानों द्वारा लगायी जाती है।
डॉ यादव मंगलवार को बिरसा कृषि विश्वविद्यालय में आयोजित वार्षिक रबी तेलहन समूह बैठक -2025 को संबोधित कर रहे थे। यह बैठक तीसी एवं कुसुम फसलों पर केन्द्रित है।
डॉ यादव ने कहा कि भारत ने खाद्यान्न उत्पादन, नकदी फसल उत्पादन, चारा फसल उत्पादन जैसे मोर्चों पर बहुत पहले आत्मनिर्भरता प्राप्त कर ली है, किंतु अब भी अपनी आवश्यकता के 55% खाद्य तेल का आयात दूसरे देशों से करता है। वर्ष 1962 में देश में प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष खाद्य तेल की खपत 4 किलो थी, जो 2024 में बढ़कर 20 किलो हो गई। हालांकि इसकी उत्पादकता में अपेक्षित वृद्धि नहीं हो पाई।
तेल और रेशा के लिए उपयोग की जानेवाली तीसी से रबी मौसम में गेहूं, चना और सरसों जैसी फसलें स्थान और लाभप्रदता के लिए प्रतिस्पर्धा करती हैं। इसकी पोषकता और औषधीय गुणों के बावजूद किसान तीसी उत्पादन के लिए तब तक उत्साह के साथ आगे नहीं आएंगे, जब तक फसल सुधार प्रयासों द्वारा इसका उत्पादन अन्य रबी फसलों की तरह ही लाभकारी नहीं बना दिया जाता।
बीएयू के कुलपति डॉ एससी दुबे ने एंटी ऑक्सीडेंट और कैंसररोधी गुणों से भरपूर और प्राचीन काल से आयुर्वेद पद्धति का अंग रही। इस फसल की संभावनाओं के समुचित दोहन पर बल दिया। उन्होंने कहा कि बायो फोर्टीफाइड प्रभेदों की सीमित उपलब्धता, बीज प्रतिस्थापन दर, प्रसंस्करण और मूल्य संवर्धन कम होना इसके क्षेत्र विस्तार में प्रमुख बाधायें हैं।
आईसीएआर के सहायक महानिदेशक (तेलहन एवं दलहन) डॉ संजीव गुप्त ने कहा कि अपनी गेहूं आवश्यकता के लिए कभी दूसरे देशों के आगे हाथ फैलाने वाला भारत पिछले 6 दशकों में गेहूं का बड़ा निर्यातक बन गया है। तेलहन फसल के मोर्चे पर भी वैसे ही समर्पित प्रयास की आवश्यकता है। पिछले एक दशक के दौरान तीसी के क्षेत्र में लगभग 20% की कमी आई है।
देश में इस क्षेत्र के लिए अब अच्छे वैज्ञानिक, अच्छे संस्थान, वैश्विक साझेदारी और नीतिगत समर्थन उपलब्ध है। जरूरत है समेकित प्रयास की, ताकि इस फसल के क्षेत्र, उत्पादकता और तेल की मात्रा में वृद्धि हो सके। हाल में विकसित कुसुम की एक प्रजाति में तेल की मात्रा 42% से अधिक पाई गई है। यद्यपि इस फसल का 94% क्षेत्र कर्नाटक और महाराष्ट्र में है।
भारतीय तेलहन अनुसंधान संस्थान, हैदराबाद के निदेशक डॉ आरके माथुर ने कुसुम और तीसी संबंधी अखिल भारतीय समन्वित अनुसंधान परियोजना के तहत वर्ष 2024-25 में प्रजाति विकास, प्रसंस्करण और मूल्य संवर्धन एवं बीज उत्पादन के क्षेत्र में हुई उपलब्धियों का खाका प्रस्तुत किया।
बीएयू के अनुसंधान निदेशक डॉ पीके सिंह ने स्वागत भाषण और आनुवंशिकी एवं पौधा प्रजनन विभाग की अध्यक्ष डॉ मणिगोपा चक्रवर्ती ने धन्यवाद किया। संचालन शशि सिंह ने किया।
बिहार कृषि विश्वविद्यालय, भागलपुर और इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर को तीसी के सर्वोत्तम शोध केंद्र एवं वसंत राव नाइक मराठवाड़ा कृषि विद्यापीठ, परभनी, महाराष्ट्र को कुसुम फसल के सर्वोत्तम शोध केंद्र का पुरस्कार प्रदान किया गया।
आयोजन में भाग लेने वालों में भारतीय तेलहन अनुसंधान संस्थान के प्रधान वैज्ञानिक डॉ एएल रत्नाकुमार एवं डॉ पी भूपति, राष्ट्रीय कृषि उच्चतर प्रसंस्करण संस्थान के निदेशक डॉ अभिजीत कर, भारतीय कृषि जैव प्रौद्योगिकी संस्थान, रांची के निदेशक डॉ सुजय रक्षित, भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, हजारीबाग के विशेष कार्य पदाधिकारी डॉ विशाल नाथ, केंद्रीय तसर अनुसंधान एवं प्रशिक्षण संस्थान के निदेशक डॉ एनबी चौधरी, शोध संस्थान, पलांडु के प्रधान डॉ अवनी कुमार सिंह, राष्ट्रीय जैव प्रौद्योगिकी संस्थान, नई दिल्ली के पूर्व प्रधान वैज्ञानिक डॉ एसआर भट्ट, भारतीय तेलहन अनुसंधान संस्थान हैदराबाद के पूर्व निदेशक डॉ डीएम हेगडे़ और परियोजना अनुश्रवण समिति के सदस्य डॉ अनंत विश्वकर्मा शामिल हैं।
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