- जन्मोत्सव पर विशेष
जमशेदपुर। इतिहास में अक्सर चर्चित व्यक्तियों के नाम ही सुर्खियों में रहते हैं। हालांकि उन समर्पित लोगों को कम ही याद किया जाता है, जो पर्दे के पीछे रहकर अद्वितीय कार्य करते हैं। सर दोराबजी टाटा भी ऐसे ही एक महान व्यक्ति थे, जिनकी दूरदर्शिता ने उनके पिता के मजबूत और समृद्ध भारत के सपने को साकार किया। उन्होंने ईंट-ईंट और इस्पात-इस्पात जोड़कर आधुनिक भारत की नींव रखी।
सर दोराबजी केवल एक व्यवसायी नहीं थे, बल्कि वे एक समर्पित देशभक्त भी थे, जो आत्मनिर्भर भारत के निर्माण में दृढ़ विश्वास रखते थे। उन्होंने चुनौतीपूर्ण छोटानागपुर इलाके में भारत के पहले इस्पात संयंत्र की स्थापना का नेतृत्व किया, जो देश की औद्योगिक यात्रा की शुरुआत थी। उन्होंने दुर्गम पश्चिमी घाट में जलविद्युत संयंत्रों के निर्माण की भी अगुवाई की, जिससे देश को ऊर्जा और विकास की नई दिशा मिली।
उनके नेतृत्व ने टाटा आयरन एंड स्टील कंपनी (अब टाटा स्टील) की स्थापना के सपने को साकार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनकी देखरेख में कंपनी ने 2,90,000 टन इस्पात का उत्पादन किया, जो प्रथम विश्व युद्ध के दौरान मित्र राष्ट्रों के युद्ध प्रयासों में बेहद अहम साबित हुआ। इस उल्लेखनीय योगदान के सम्मान में ब्रिटिश सरकार ने लौह नगरी का नाम साकची से बदलकर जमशेदपुर रखा, जो सर दोराबजी की दूरदृष्टि और विरासत को श्रद्धांजलि है।
हालांकि सर दोराबजी सिर्फ इस्पात और बिजली तक सीमित नहीं थे। वे एक गहरे संवेदनशील और सामाजिक रूप से जिम्मेदार व्यक्ति थे। अपने पिता के सिद्धांतों का पालन करते हुए उन्होंने कर्मचारियों के कल्याण के लिए जोरदार पैरवी की और सम्मान और समझदारी की संस्कृति को बढ़ावा दिया। 1920 में जब श्रमिक हड़ताल हुई, तो उन्होंने व्यक्तिगत रूप से जमशेदपुर का दौरा किया। श्रमिकों की शिकायतें सुनीं। इस संघर्ष को शांतिपूर्ण ढंग से सुलझाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
उनकी दूरदृष्टि और दृढ़ संकल्प अद्वितीय थे। उन्होंने विकास और विस्तार की आवश्यकता को गहराई से समझा। युद्ध के बाद के दौर में टाटा स्टील को पांच गुना विस्तार कार्यक्रम के माध्यम से आगे बढ़ाया। कंपनी की सफलता के प्रति उनकी प्रतिबद्धता इतनी मजबूत थी कि उन्होंने और उनकी पत्नी, लेडी मेहरबाई, ने कठिन समय में कंपनी को बचाने के लिए अपना व्यक्तिगत धन, जिसमें लेडी मेहरबाई का जुबली डायमंड भी शामिल था, गिरवी रख दिया।
टाटा स्टील से परे सर दोराबजी का प्रभाव टाटा समूह तक फैला, जिसे उन्होंने एक छोटे उद्यम से भारत के सबसे बड़े व्यापारिक घराने में बदल दिया। उनके देश के औद्योगिक विकास में अपार योगदान के लिए उन्हें 1910 में नाइटहुड से सम्मानित किया गया।
सर दोराबजी भारत के प्राकृतिक संसाधनों का प्रभावी ढंग से उपयोग करना चाहते थे। उन्होंने पश्चिमी घाटों के जल संसाधनों का उपयोग हाइड्रोइलेक्ट्रिक पावर के लिए करने की दिशा में अपने पिता के दृष्टिकोण को गंभीरता से लिया। इसके परिणामस्वरूप, उन्होंने टाटा हाइड्रो-इलेक्ट्रिक पावर सप्लाई कंपनी, आंध्र वैली पावर सप्लाई कंपनी और टाटा पावर कंपनी नामक तीन कंपनियों की स्थापना की, जिन्हें मिलाकर आज टाटा पावर के नाम से जाना जाता है। इस पहल ने भारत के ऊर्जा परिदृश्य को बदल दिया और स्वच्छ ऊर्जा की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम साबित हुआ।
उनका शिक्षा और अनुसंधान के प्रति समर्पण अडिग था। उन्होंने बैंगलोर में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस की स्थापना की, जो आज एक प्रमुख संस्थान बन गया है। वैज्ञानिक अनुसंधान को बढ़ावा देने तथा भारत में नवाचार की संस्कृति को प्रोत्साहित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है।
सर दोराबजी की दानशीलता विशाल थी। उन्होंने समाज को लौटाने में विश्वास किया और सर दोराबजी टाटा ट्रस्ट और इसके अन्य ट्रस्टों की स्थापना की। इन ट्रस्टों के माध्यम से टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज, टाटा मेमोरियल हॉस्पिटल, टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ फंडामेंटल रिसर्च, और नेशनल सेंटर फॉर थे परफॉर्मिंग आर्ट्स जैसी महत्वपूर्ण संस्थाओं की स्थापना की गई। ये संस्थान महत्वपूर्ण सेवाएं प्रदान करते हैं, अनगिनत जीवन को प्रभावित करते हैं और एक बेहतर भविष्य की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं।
खेलों के प्रति उनकी लगन भी उतनी ही उल्लेखनीय थी। उन्होंने 1920 के एंटवर्प ओलंपिक में भारत की पहली ओलंपिक टीम को वित्तीय सहायता प्रदान की। भारत की वैश्विक खेल मंच पर उपस्थिति को स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके समर्पण ने भारत की ओलंपिक यात्रा की नींव रखी।
सर दोराबजी टाटा का निधन 1932 में हुआ, लेकिन उनकी छोड़ी गई विरासत आज भी प्रेरणा का स्रोत है। उनका जीवन दूरदर्शिता, समर्पण, और सहानुभूति की शक्ति का प्रतीक है, जो दर्शाता है कि एक व्यक्ति का दुनिया पर कितना गहरा प्रभाव हो सकता है। आत्मनिर्भर और समृद्ध भारत में उनकी अडिग आस्था आज भी टाटा स्टील और टाटा समूह को मार्गदर्शन करती है और देश के विकास में महत्वपूर्ण योगदान देती है।
उनकी 165वीं जयंती पर टाटा समूह हम सर दोराबजी टाटा को केवल एक व्यवसायी के रूप में नहीं, बल्कि एक सच्चे राष्ट्र-निर्माता और अग्रणी के रूप में याद करते हैं, जिन्होंने भारत के उज्ज्वल भविष्य के लिए मार्ग प्रशस्त किया। उनकी कहानी यह सिखाती है कि सच्चे नायक हमेशा मंच पर नहीं होते; बल्कि वे लोग होते हैं जो पर्दे के पीछे मेहनत करते हैं और सभी के लिए एक बेहतर भविष्य का निर्माण करते हैं।
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