समुदाय केंद्रित नदियों के पुनर्जीवन विषय पर दो दिनी सेमिनार आयोजित, बोलीं दीपिका पांडेय…

झारखंड
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पानी के बेहतर प्रबंधन के लिए हमें समुदायों के पास ही सीखने जाना होगाः मधुकर

रांची। प्रकृति के प्रकोप को आज ग्लोबल वार्मिंग के नाम से दुनिया संबोधित करती है, गांव के आम लोग इसे धरती को बुखार का नाम देते हैं। जब समाज की आंखों से नदियां गायब होती हैं, तो नदियां भी सूखने लगती हैं और जब नदियों और पानी को बचाने के लिए समाज उठ खड़ा होता है, तो सरकारों को समाज के पास आना ही पड़ता है। जल प्रबंधन प्रणाली जितनी विकेंद्रित होगी। नदियों के पुनर्जीवन की संभावनाएं उतना संभव हो पाएगा। दुर्भाग्य की बात है कि आज सरकारें खासकर नीति निर्धारक पारंपरिक देशज ज्ञान को नजरअंदाज करते रहे हैं। यही कारण है कि आज झारखंड ही नहीं, बल्कि देश और पूरी दुनिया में पानी का संकट विकराल होता जा रहा है। हम विगत 20 वर्षों के समुदाय के साथ कार्य के अनुभव के आधार पर दावा करते हैं कि 17 मृत नदियों को पुनर्जीवित किया है और ये झारखंड के लिए ज्यादा मुश्किल नहीं होगा, क्योंकि यहां समुदाय का देशज ज्ञान बहुत ही समृद्ध है और ये ऐतिहासिक समय से ही जल, जंगल, जमीन के प्रति संघर्ष की भूमि रहा है। उक्त बातें रांची, अशोक नगर स्थित होटल अमलताश में गैर सरकारी संस्था द्वारा आयोजित समुदाय केंद्रित नदियों के पुनर्जीवन विषय पर आयोजित दो दिवसीय सेमिनार के उद्घाटन सत्र को संबोधित करते हुए देश के ख्याति प्राप्त जल पुरुष राजेन्द्र सिंह ने कहीं।

सत्र को संबोधित करते हुए मंत्री, कृषि, पशुपालन, सहकारिता एवं आपदा प्रबंधन विभाग की दीपिका पाण्डेय ने कहा कि बतौर एक जन प्रतिनिधि समाज का बड़ा तबका का सवाल आज जल संकट का सामना करना पड़ता है। मुझे जो नई जिम्मेदारी सरकार ने सौंपी है, हमारी पूरी कोशिश होगी कि जल छाजन जैसी महत्वकांक्षी योजना को धरातल पर उतारें। इसे ग्राम पंचायतों और ग्राम सभाओं के जिम्मे कार्यान्वयन के बिंदुओं पर नए सिरे से विचार किये जाएंगे।

पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित चामी मुर्मू ने अपील की कि झारखंड का संघर्ष हमेशा से जल, जंगल, जमीन जैसी प्राकृतिक संसाधनों पर समुदाय का अधिकार स्थापित करने की रही है। इसी दिशा में सरकार और समाज दोनों के आपसी समन्वय से नदियों के पुनर्जीवन का सपना साकार हो सकेगा।

जमशेदपुर के विधायक सह दामोदर नदी को बचाने की मुहिम के प्रणेता सरयू राय ने कहा कि सरकारों द्वारा निर्गत किये जानेवाले अनुदानों अथवा कर्ज राशि को खर्च करना हमेशा से प्राथमिकता रहती है। जिसके कारण जिनके ऊपर योजनाओं के क्रियान्वयन की जिम्मेवारी होती है, उनकी प्राथमिक मंशा होती है कि योजना में से अधिकांश हिस्सा कैसे बचे। इसे हमलोग भ्रष्टाचार कहते हैं। प्रकृति के प्रति मनुष्यों खासकर सरकारों के अत्याचार से परिस्थितियां विकराल होती जा रही हैं। इसे हर हाल में रोकना होगा।

भोजन का अधिकार अभियान से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ता बलराम ने कहा कि धरती में 71% पानी समुद्र में भंडारित है, 2.4% पानी ग्लेशियर में निहित हैं। इन दोनों श्रोतों का झारखंड में कोई संभावना नहीं है। यहां तो पानी का श्रोत है वो सिर्फ 0.6% है। इसी से हमारा पूरा जीवनचक्र चलता है।

दूसरे सत्र में समुदाय विशेषज्ञ बहादुर उरांव ने व्यक्तिवादी जीवनशैली को समस्या की जड़ बताया। तरुण भारत संघ की इंदिरा खुराना ने प्राकृतिक आपदाओं को रेखांकित करते हुए समुद्र जल स्तर में निरंतर बढ़ोतरी, ग्लेशियरों के तेजी से पिघलना, असमय बारिश जैसे मुद्दों को सेमिनार में रखा। बीआईटी मेसरा के वैज्ञानिक ए।पी। कृष्णा स्वर्ण रेखा नदी के बेसिन में हो रहे नकारात्मक प्रभावों के शोध को साझा किया। पलामू इलाके में काम करने वाले सम्पूर्ण ग्राम विकास केंद्र के बिनोद कुमार ने पारंपरिक पाइन आहार ज्ञान पद्धति को फिर से अभ्यास में लाने की वकालत की। अन्य वक्ताओं में मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड में पानी पर काम करने वाले संजय सिंह, झारखंड जल गुणवत्ता यूनिट से डॉ। विपुल सुमन, बिहार में पानी के मुद्दे पर काम कर रहे विनोद मिश्रा, बंगाल से तुहिन सुबरा मंडल शामिल थे।

नदियों के पुनर्जीवन के इस क्षेत्रीय सेमिनार में झारखंड के विभिन्न जिलों के प्रतिभागियों बिहार, पश्चिम बंगाल उड़ीसा से 60 प्रतिभागी शामिल हुए हैं। कार्यक्रम के उद्घाटन में सर्वप्रथम झारखंड सहित देश के प्रसिद्ध अर्थशास्त्री डॉ। रमेश शरण की दिवंगत आत्मा की शांति के लिए 2 मिनट का मौन रखा गया और उनकी तस्वीर पर पुष्प अर्पित कर उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की गई। कार्यक्रम का संचालन गुरजीत सिंह और सुकान्ता सरकार ने संयुक्त रूप से किया। इस राज्य स्तरीय सेमिनार का आयोजन डब्ल्यूएचएच और फिया फाउंडेशन के पुरस्कारों से किया जा रहा है।