कभी खाने को मोहताज थी ललिता उरांव, आज 4 लोगों को दे रही रोजगार

झारखंड
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आनंद कुमार सोनी

लोहरदगा। झारखंड के लोहरदगा जिले के किस्‍को गांव की रहने वाली है ललिता उरांव। वह महिला मंडल से 2015 में जुड़ी। पति की मृत्‍यु हो जाने के बाद उसने लकड़ी बेचना शुरू कि‍या। वह अपने गांव किस्को से बड़कीचांपी बाजार तक अपने सिर पर लकड़ी का गट्ठर लेकर पैदल जाया करती थी। उस समय वह प्रति गट्ठर 12 रुपये से लेकर 21 रुपये प्रति बोझा बेचा करती थी। उसी से उसके परिवार का खर्च चलता था।

कुछ समय तक रेजा-कुली का काम भी किया। कभी-कभी गांव-गांव जाकर धान ख़रीद कर उसे पुनः बेचा करती थी। उसी से परिवार का गुजारा करती थी। हालांकि इसमें उनको बहुत परेशानियों का सामना करना पड़ा। वह बताती है कि घर में कभी-कभी एक टाइम का चावल भी नहीं होता था। साबुन, तेल का भी दिक्कत होती थी।

वह बताती है कि अपने बच्चे को पढ़ाने के लिए हंड़िया-दारु बनाकर बेचने लगी। इस दौरान ललिता उरांव ने SHG से पहला ऋण 20 हजार रुपये लिया। दूसरी बार बच्चे की पढ़ाई के लिए 30 हजार रुपये का ऋण लिया। ससमय उसको लौटाया।

उनका कहना है कि हंड़िया-दारु बेचने से उनको समाज में ज्यादा सम्मान नहीं मिलता था। बच्चे की पढ़ाई पर असर भी होता था। इस दौरान उन्होंने 40 हजार रुपये का तीसरा लोन लिया। इससे अपने ही गांव में छोटा-सा होटल खोला, जिससे वह आज अच्छी आमदनी प्राप्त कर रही हैं।

होटल की कमाई से उसने अपने लिए घर बनाया। बच्चे की पढ़ाई भी पूरी करायी। वर्तमान में ललिता उरांव ने होटल में 3 लेबर और 1 मिस्त्री को रोजगार दिया है। उनका दैनिक वेतन और होटल का प्रतिदिन का खर्च और भुगतान को काटकर प्रति वर्ष उसे 1.20 से 1.25 लाख रुपये की आमदनी हो जाती है।

कभी खाने को मोहताज़ ललिता उरांव आज अपने प्रखंड किस्को में महिला सशक्तिकरण की पहचान बनकर उभर रही है।

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