उत्तर प्रदेश। बनारस त्योहार और उत्सवों की नगरी है। साहित्य-कला-संस्कृति से लेकर धर्म और अध्यात्म तक यहां की गतिविधियां अपने अंदर एक समृद्ध इतिहास को छुपाए हुए हैं। बनारस का प्रथम सार्वजनिक दुर्गोत्सव, ‘बाराणसी दुर्गोत्सव सम्मिलनी’ अपनी शताब्दी के पादप्रदीप पर है। आजादी के आंदोलन के बीच 1922 में तत्कालीन बंग समाज के बाल-वृद्ध-वनिता द्वारा प्रारम्भ यह संस्था सदैव शारदोत्सव को संभ्रांत वर्ग के एकाधिकार से मुक्त कर सर्वसाधारण का उत्सव बनाने के लिए प्रतिबद्ध रही है। उक्त उद्गार वाराणसी परिक्षेत्र के पोस्टमास्टर जनरल कृष्ण कुमार यादव ने सीएम एंग्लो बंगाली प्राइमरी स्कूल, पांडेयहवेली के परिसर में ‘बाराणसी दुर्गोत्सव सम्मिलनी’ के शताब्दी वर्ष समारोह पर आयोजित समारोह में विशेष आवरण (लिफाफा) एवं विरूपण जारी करते हुए व्यक्त किए।
पोस्टमास्टर जनरल ने कहा कि ‘बाराणसी दुर्गोत्सव सम्मिलनी’ का अपना एक समृद्ध इतिहास रहा है। इसी प्रयास से दुर्गोत्सव के माध्यम से भाषागत एवं आर्थिक विभेद से परे इस संस्था ने बनारस की सांस्कृतिक धरोहर को संजोया व समृद्ध किया। सम्मिलनी निरंतर आर्थिक रूप से दुर्बल वर्ग के सहयोग में भी सदैव तत्पर एवं कार्यरत रही है। ऐसे में डाक विभाग ने इन खूबियों को रेखांकित करते हुए इस पर विशेष आवरण व विरूपण जारी किया है।
‘बाराणसी दुर्गोत्सव सम्मिलनी’ के अध्यक्ष देबाशीष दास ने सम्मिलनी के शताब्दी वर्ष समारोह पर विशेष आवरण जारी करने के लिए डाक विभाग का आभार व्यक्त किया। उन्होंने कहा कि जुलाई 1922 में बंगाली टोला हाईस्कूल के मैदान में साधारण सभा में ‘बाराणसी दुर्गोत्सव सम्मिलनी’ का नामकरण हुआ था। उस दौर में बनारस में बिजली भी ठीक से चालू नहीं हुई थी। तब से इस संस्था ने बनारस में दुर्गापूजा की परंपरा कायम कर इसे बनारस में नई पहचान दी।