हानिकारक घास से झारखंड में बढ़ेगा फसल उत्‍पादन

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  • राज्‍य के 16 जिलों के 4 हजार किसानों को जोड़ा जाएगा
  • किसानों की सहभागिता पार्थेनियम कम्पोस्ट का होगा उत्पादन

रांची। हानिकारक घास से झारखंड में फसल उत्‍पादन की पहल की गई है। इस क्रम में किसानों की सहभागिता पार्थेनियम कम्पोस्ट का उत्पादन होगा। राष्ट्रीय कृषि विकास योजना के सौजन्य से राज्‍य चार हजार किसानों को इससे जोड़ा जाएगा। उन्‍हें खाद बनाने का प्रशिक्षण दिया जाएगा। इसकी शुरुआत उपराजधानी दुमका से मंगलवार को हुई।

16 जिलों में चलेगी योजना

राज्‍य के 16 जिलों में पार्थेनियम घास से कम्पोस्ट बनाने पर प्रशिक्षण और किसानों की सहभागिता पार्थेनियम घास (गाजर घास) कम्पोस्ट उत्पादन कार्यक्रम चलाया जायेगा। इसके तहत बोकारो, धनबाद, गिरिडीह, जामताडा, दुमका, पाकुड़, गोड्डा, साहेबगंज, चतरा, लातेहार, पलामू, गढ़वा, लोहरदगा, सिमडेगा, पूर्वी सिंहभूम एवं पश्चिमी सिंहभूम जिलों में कार्यक्रम चलेगा। इन जिलों में स्थित कृषि विज्ञान केंद्रों के सहयोग से अस्सी प्रशिक्षण कार्यक्रम का होगा।

हर जिले में 250 किसान जुड़ेगे

राज्‍य के हर जिले के 250 किसानों सहित पूरे प्रदेश के 4 हजार किसानों को प्रशिक्षित किया जायेगा। सभी प्रशिक्षित किसानों को बरसात से पूर्व 10’ x 6’ x 3’ फीट आकार के गड्ढे का निर्माण कर पार्थेनियम घास (गाजर घास) से कम्पोस्ट का उत्पादन कराने की योजना है। इसके लिए प्रति किसान चार हजार रुपये सहायता राशि दी जाएगी।

प्रशिक्षण कार्यक्रम की शुरुआत

योजना के तहत मंगलवार को दुमका स्थित कृषि विज्ञान केंद्र में पार्थेनियम घास के उपयोग से कम्पोस्ट निर्माण विषयक दो दिवसीय प्रशिक्षण कार्यक्रम की शुरुआत की गई। कार्यक्रम का उद्घाटन क्षेत्रीय अनुसंधान केंद्र के एसोसिएट डायरेक्टर डॉ पीबी साहा ने किया। मौके पर डॉ साहा ने गाजर घास कम्पोस्ट के लाभों के बारे में बताया। दुमका केवीके प्रभारी डॉ अजय कुमार द्विवेदी ने पार्थेनियम घास को मनुष्य और पशुओं के स्वास्थ्य के लिए खतरनाक बताया। इसके उपयोग से खाद निर्माण को उपयोगी बताया। मौके पर डॉ सुनील कुमार और डॉ जयंत लाल ने भी अपने विचार रखे। किसानों को रांची से गए वैज्ञानिक डॉ शीला बारला और डॉ चंद्र शेखर महतो द्वारा प्रशिक्षण दिया जा रहा है।

समस्‍या बनती जा रही है

बिरसा कृषि विवि की शस्य वैज्ञानिक और कार्यक्रम समन्यवयक डॉ शीला बारला बताती है कि गाजर घास को चटक चांदनी, कांग्रेस ग्रास, गांधी टोपी व कड़वी घास आदि नामों से भी जाना जाता है। पूरे भारत के लिए यह एक समस्या बनती जा रही है। यह कृषि, मनुष्य, पशुओं, पर्यावरण एवं जैव विविधता के लिए खतरा बनती जा रही है। यह अकृषित, कृषि क्षेत्र, रेल लाइन अथवा सड़कों के किनारे काफी मात्रा में हर मौसम में पाई जाती है। इसके नाश एवं उन्मूलन के अनेकों कार्यक्रम चलाये जा चुके है। इसमें कोई विशेष सफलता नहीं मिली। ऐसी स्थिति में बीएयू के शस्य वैज्ञानिकों द्वारा गाजर घास के उपयोग से मनुष्य के हित में कम्पोस्ट निर्माण एक नवाचार के रूप में लाया गया  है। इससे खतरनाक गाजर घास की कमी से पर्यावरण को सुरक्षित रखा जा सकेगा।

पर्यावरण सुरक्षा की जा सकती है

गाजर घास से जैविक खाद बनाकर पर्यावरण सुरक्षा की जा सकती है। साथ ही धनोपार्जन भी किया जा सकता है । इससे बनी कम्पोस्ट में मुख्य पोषक तत्वों की मात्रा गोबर खाद से दोगुनी और केंचुआ खाद के लगभग होती है। गाजर घास के उपयोग से कम्पोस्ट का निर्माण जैविक खेती का एक अच्छा विकल्प साबित हो सकता है ।

ऊंचाई वाली भूमि का प्रयोग

थोड़ी ऊंचाई वाली भूमि, जहां पानी का जमाव नहीं हो, 10 फीट लंबी, 6 फीट चौड़ी और 3 फीट गहरी आकार के गड्ढा में गाजर घास एवं अन्य उपादानों के उपयोग से 4 से 5 माह में  अच्छी कम्पोस्ट तैयार की जा सकती है। साथ ही, कम्पोस्ट बनाने पर गाजर घास की जीवित अवस्था में पाया जाने वाला विषाक्त रसायन ‘पार्थेनिन’ का पूर्णतः विघटन हो जाता है। जैविक खाद के कारण यह पर्यावरण मित्र है। यह बहुत कम लागत में भूमि की उर्वरा शक्ति को बढ़ाता है। इसे फसलों में इस्तेमाल कर या बेचकर अधिक धनोपार्जन कर सकते हैं। इसके गर्म मौसम में अच्छी कम्पोस्ट तैयार होने के लिए 4 से 5 माह लगती है, जबकि ठंढे मौसम में ज्यादा समय लग सकता है।

अस्तित्‍व खोते जा रहे हैं

डीन एग्रीकल्चर डॉ एमएस यादव बताते है कि पार्थेनियम को समूल नष्ट करने के लिये काफी संवेदनशीलता एवं ईमानदारी से काम करने की जरूरत होगी। तभी इससे मुक्ति संभव है। इंडियन काउंसिल आफ एग्रीकल्चर रिसर्च द्वारा सर्वे में खेतों में 300 खर-पतवार मिले। यह जानवरों के भोजन के साथ-साथ मानव जीवन के लिए औषधीय गुणों से परिपूर्ण थे। पार्थेनियम के दुष्प्रभाव से ये सभी खर-पतवार अपना अस्तित्व खोते जा रहे हैं। इसके कारण अनेकों महत्‍वपूर्ण जड़ी-बूटियों और चरागाहों के नष्ट हो जाने की आशंका पैदा हो गई है। इसका प्रतिकूल असर अन्न उत्पादन पर भी पड़ रहा है।