मन की बात में पीएम ने झारखंड के हीरामन का किया जिक्र

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  • ऑस्ट्रो-एशियाई परिवार की जनजातीय कोरवा भाषा का शब्दकोश को बताया सराहनीय पहल

रांची। भाषा को वैचारिक आदान-प्रदान का माध्यम कहा जा सकता है। यह अभिव्यक्ति का सर्वाधिक विश्वसनीय माध्यम है। भाषा का विकास निरंतर चल रहा है। इसी क्रम में गढ़वा जिला के रंका थाना क्षेत्र के सुदूरवर्ती सिंजो गांव निवासी हीरामन कोरवा ने 12 साल के अथक परिश्रम के बाद ऑस्ट्रो-एशियाई परिवार की जनजातीय कोरवा भाषा का शब्दकोश लिखा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने मन की बात कार्यक्रम में उसका जिक्र किया। उसकी पहल को सराहनीय बताया।

भारतीय उपमहाद्वीप में अलग-अलग भाषाई समुदायों की एक बड़ी संख्या है, जो आदिम काल से बदलते दौर के साथ सामंजस्य बिठाकर अपनी भाषा संस्कृति को सहेज कर रखे हुए हैं। इसी क्रम में गढ़वा जिले के रंका थाना क्षेत्र के सुदूरवर्ती सिंजो गांव निवासी हीरामन कोरवा ने 12 साल के अथक परिश्रम के बाद ऑस्ट्रो-एशियाई परिवार की जनजातीय कोरवा भाषा का शब्दकोश लिखा है।

50 पन्नों के इस शब्दकोश में पशु पक्षियों से लेकर सब्जी, रंग, दिन, महीना, घर गृहस्थी से जुड़े शब्द, खाद्य पदार्थ, अनाज, पोशाक, फल सहित अन्य कोरवा भाषा के शब्द और उनके अर्थ शामिल किए गए हैं।

पेशे से पारा शिक्षक हीरामन बताते हैं कि समय के साथ समाज के लोग कोरवा भाषा को भूलने लगे हैं, जो बात उन्हें बचपन से ही कचोटती थी। हीरामन बताते हैं कि जब उन्होंने होश संभाला, तभी से उन्होंने कोरवा भाषाओं को एक डायरी में लिपिबद्ध करने का काम शुरू कर दिया था। आर्थिक तंगी के कारण 12 साल तक यह शब्दकोश डायरियों में सिमटे रहे। फिर आदिम जनजाति कल्याण केंद्र गढ़वा और पलामू के मल्टी आर्ट एसोसिएशन के सहयोग से कोरवा भाषा शब्दकोश छप सका।

गौरतलब है की देश में फिलहाल तकरीबन 8.2 प्रतिशत जनजातीय आबादी है। सभी के पास समृद्ध संस्कृति और भाषाएं हैं। झारखंड में 32 जनजातियां हैं। उनमें से नौ जनजातियां कोरवा सहित अन्य आदिम जनजाति वर्ग में आती हैं। वर्ष 2011 में कोरवा आदिम जनजाति की आबादी 35 हजार 606 के आसपास थी। यह आदिम जनजाति मुख्य रूप से पलामू प्रमंडल के रंका, धुरकी, भंडरिया, चैनपुर, महुआटांड़ सहित अन्य प्रखंडों में निवास करती है।

आधुनिक हिंदी साहित्य के पितामह कहे जाने वाले भारतेंदु हरिश्चन्द्र कहते हैं ‘निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल’। इस दोहा का भावार्थ: कुछ यूं है कि‍ निज यानी अपनी भाषा से ही उन्नति संभव है, क्योंकि यही सारी उन्नतियों का मूलाधार है। मातृभाषा के ज्ञान के बिना हृदय की पीड़ा का निवारण संभव नहीं   है।

इसमें कोई संदेह नहीं की हीरामन द्वारा लिखित कोरवा भाषा शब्दकोश  कोरवा भाषा को संरक्षित और समृद्ध करने में मील का पत्थर साबित होगी। यह जनजातीय समुदाय की अस्मिता और सामाजिक व सांस्कृतिक पहचान को बनाये रखने में मददगार साबित होगी।