- ओमप्रकाश अश्क
पटना। बिहार में बीजेपी को मिल गए मददगार। आईए जानते हैं कि मदद के लिए किन-किन लोगों ने बढ़ाये अपने हाथ ? जी हां ! 2024 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को शिकस्त देने के लिए विपक्ष हर संभव कोशिश कर रहा है। कभी एकजुट विपक्ष की बात होती थी, पर अब तो विपक्षियों के कई खेमें बनते दिख रहे हैं। ममता बनर्जी और अखिलेश यादव कांग्रेस रहित खेमा बना रहे, तो बिहार में आरजेडी और जेडीयू के नेता अब भी कांग्रेस के साथ संभावना तलाश रहे हैं।
असदुद्दीन ओवैसी, मायावती और नवीन पटनायक ने अब तक अपने पत्ते नहीं खोले हैं, लेकिन अनुभव यही कहता है कि वे अपनी राह औरों से अलग ही रखेंगे। केसीआर और अरविंद केजरीवाल के अलग कुनबे के आसार हैं। इन सबसे अलग कांग्रेस एकला चलने पर अड़ी है। 2014 से लगातार नरेंद्र मोदी पीएम हैं। केंद्र में बीजेपी की सरकार है। इससे एंटी इन्कम्बैंसी स्वाभाविक है। बढ़ती महंगाई, बेरोजगारी से लोग तबाह हैं। लेकिन विपक्ष इसका लाभ तभी उठा सकता है, जब वह एकजुट होकर बीजेपी का मुकाबला करे। मगर, इसे संयोग ही कहिए कि विपक्षी पार्टियों की हर चाल जाने-अनजाने बीजेपी के पक्ष में पलट जा रही है।
विपक्षी एकता तो अब दूर की कौड़ी लगती है। यानी विपक्षी दल ही विपक्ष का खेल बिगाड़ने के लिए मैदान में ताल ठोक रहे हैं। बिहार की बात करें तो एआईएमआईएम के असदुद्दीन ओवैसी विपक्ष का खेल बिगाड़ने के लिए मैदान में उतर चुके हैं।
एआईएमआईएम के नेता असदुद्दीन ओवैसी हमेशा अलग ही राह चुनते रहे हैं। देश में जिस तरह के सांप्रदायिक उभार का दर्शन हो रहा है, उसमें ओवैसी की ताकत को कमतर मानना भूल होगी। वे घोषित रूप से मुसलमानों के नेता हैं। ठीक उसी तरह जैसे मायावती को दलितों का नेता माना जाता है। बीजेपी से चिढ़े मुसलमान अगर ओवैसी के साथ आंशिक या पूर्ण रूप से खड़े हो गये, तो उनकी पार्टी चुनाव भले न जीते, पर दूसरे विपक्षी दलों के उम्मीदवारों को हराने में बड़ी भूमिका जरूर निभा सकती है। खासकर बिहार में।
मुस्लिम बहुल बिहार के सीमांचल के चार जिलों में तो ओवैसी ने मुसलमानों पर पकड़ इतनी मजबूत कर ली है कि उनकी पार्टी एक-दो सीट निकाल ले, तो कोई अचरज की बात नहीं होगी। अगर सीट नहीं भी निकली तो मुस्लिम वोटों पर अपना कॉपीराइट समझने वाले आरजेडी, जेडीयू और कांग्रेस जैसे दलों के उम्मीदवारों की हार का कारण तो ओवैसी की पार्टी जरूर बन सकती है।
ऐसा गोपालगंज में असेंबली उपचुनाव में दिख चुका है। अभी दो दिनों के दौरे पर किशनगंज पहुंचे ओवैसी की सभाओं में जिस तरह मुस्लिम बिरादरी की भीड़ जुटी और आरजेडी-जेडीयू के खिलाफ उनके भाषण पर उत्साहित होकर ताली पीटती रही, वो बिहार के विपक्षी दलों के लिए खतरे की घंटी है।
बीजेपी तो इसी फिराक में बैठी है कि मुसलमानों के वोट सात दलों के सशक्त महागठबंधन से कट जाए या बिखर जाए। बिहार में एम-वाई (मुस्लिम-यादव) समीकरण ही आरजेडी-जेडीयू की जान है। यही वजह है कि चुनावी मौसम में ओवैसी जब भी बिहार आते हैं, आरजेडी समेत दूसरे विपक्षी दल उन्हें बीजेपी का एजेंट बताने-ठहराने लगते हैं। एजेंट न भी हों, पर वोट कटवा बन कर बीजेपी के मददगार तो साबित होंगे ही।
बीजेपी को 2014 के लोकसभा चुनाव से लेकर अब तक होते आए विधानसभा चुनावों में भी लगातार सफलता मिलने की मूल वजह उसका चुनावी प्रबंधन है। इसे समझने के लिए एक ही उदाहरण काफी है। अभी तक विपक्षी दल एकता की बतकही में उलझे हुए हैं, जबकि बीजेपी सुविचारित-सुचिंतित रणनीति बना कर बूथ स्तर तक काम शुरू कर चुकी है।
रणनीति के तहत वह विपक्षी दलों में तोड़-फोड़ के साथ छोटे क्षेत्रीय दलों को भी पाले में लाने का प्रयास कर रही है। जेडीयू से निकले उपेंद्र कुशवाहा, आरसीपी सिंह, प्रशांत किशोर जैसे नेता किसी न किसी रूप में भाजपा विरोधियों को कमजोर कर रहे हैं। अब तो बीजेपी की योजना पसमांदा मुसलमानों को भी अपने पक्ष में लामबंद करने की है।
बीजेपी ने बिहार के तीन विपक्षी दलों को अपने पाले में कर लिया है। जेडीयू से निकल कर उपेंद्र कुशवाहा ने अलग पार्टी बना ली है। मुकेश सहनी की अपनी पार्टी है। चिराग पासवान लोजपा के एक धड़े के नेता हैं। तीनों को केंद्र सरकार ने वाई और जेड प्लस श्रेणी की सुरक्षा देकर साध लिया है।
लोजपा के दूसरे धड़े के नेता पशुपति कुमार पारस को तो केंद्र में मंत्री बना कर पहले ही साध लिया था। जाहिर है कि भाजपा से उपकृत हुए नेता उसे छोड़कर दूसरे के साथ शायद ही खड़े हों। यह भी भाजपा की रणनीति का ही हिस्सा है।
विपक्ष कहता है कि बीजेपी के पास फिलवक्त सीबीआई-ईडी से जैसे केंद्रीय जांच एजेंसियों के सशक्त टूल हैं। वो इनका इस्तेमाल विपक्षी नेताओं के खिलाफ कर रही है। बिहार में अभी आरजेडी सबसे बड़ा दल है। बीजेपी का साथ छोड़ नीतीश कुमार आरजेडी के सहारे ही सीएम हैं और विपक्षी एकता के सहारे पीएम का सपना देख रहे हैं। लेकिन विपक्ष की एक चाल से वह भारी पसोपेश में पड़ गये हैं।
सीबीआई ने आरजेडी के जन्मदाता लालू यादव के परिवार के सदस्यों के खिलाफ अर्से से लटकी घोटालों की जांच प्रक्रिया शुरू कर दी है। आशंका तो ये जतायी जा रही है कि राजनीति में लालू के उदीयमान पुत्र तेजस्वी यादव को सीबीआई अरेस्ट भी कर सकती है। ऐसा हुआ तो नीतीश कुमार को पुराने साथी भाजपा का हाथ पकड़ने के सिवा कोई रास्ता नहीं बचेगा। ईडी ने अब तक मनी लॉन्ड्रिंग के जितने केस दर्ज किए हैं, उनमें 2.98% केस सांसदों-विधायकों पर हैं। इन मामलों में 96% पर दोष साबित हुए हैं। यानी दोष सिद्ध होने की दर भी ठीकठाक है।
पिछले दो लोकसभा चुनावों में बीजेपी बिहार में 17 से 22 सीटें जीतती रही है। इस बार उसकी योजना जीती सीटें बचाने के साथ कुछ वैसी सीटें जीतने की भी है, जहां जीत-हार का अंतर कम रहा है। यही वजह है कि अमित शाह की अब तक चार यात्राएं बिहार में कर चुके हैं। बूथ स्तर पर संगठन सक्रिय हो गया है। ऐसे में ओवैसी ने थोड़ा भी असर अपने मुस्लिम वोटरों पर दिखाया, तो बीजेपी की राह मुश्किल हालात में भी आसान हो जाएगी।