जलवायु परिवर्तन से जलवायु न्याय की ओर भारत के बढ़ते कदम

विचार / फीचर
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भूपेंद्र यादव

जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल की नवीनतम रिपोर्ट में जलवायु परिवर्तन को सबसे गंभीर अंतरराष्ट्रीय मुद्दों में से एक माना गया है। हालांकि, इसकी शुरुआत 1960 के दशक में एक पर्यावरणीय चिंता के रूप में हुई थी, लेकिन समय के साथ यह सामाजिक अधिकारों के मुद्दे के रूप में विकसित हो गया है। इसके लिए सैद्धांतिक नहीं, बल्कि व्यावहारिक तौर पर स्थानीय समाधान की तत्काल आवश्यकता है।

जलवायु परिवर्तन से पैदा होनेवाले परिणाम व जोखिम, सामाजिक-आर्थिक, जनसांख्यिकीय और भौगोलिक विविधताओं में फैल जाते हैं। जलवायु परिवर्तन से सबसे अधिक प्रभावित तटीय क्षेत्र जलवायु के हिसाब से संवेदनशील बीमारियों जैसे-मलेरिया, डायरिया, कुपोषण का सबसे अधिक सामना करते हैं। दुर्भाग्य से जलवायु परिवर्तन ने सामाजिक विभाजन पैदा कर दिया है। ऐतिहासिक रूप से उत्सर्जन और विकास के निम्नतम स्तर पर रहने वाले देश, जलवायु परिवर्तन के कुछ सबसे गंभीर परिणामों को भुगतने के लिए बाध्य हैं।

पेरिस समझौता, जलवायु के सकारात्मक प्रभावों को सुनिश्चित करने के लिए जलवायु न्याय पर समान जोर देता है। जलवायु न्याय, समाज के गरीब और वंचित वर्गों के अधिकार और हितों की रक्षा के बारे में है, जो अक्सर जलवायु परिवर्तन से होनेवाले दुष्परिणामों से सबसे ज्यादा प्रभावित होते हैं। परिणामस्वरूप ‘जलवायु न्याय’ की धारणा, जलवायु परिवर्तन को समानता की मूलभूत भावना के साथ जोड़ने के एक तरीके के रूप में उभरी है।

जलवायु न्याय, प्रभावित लोगों को केवल मुआवजा देने तक सीमित नहीं है, बल्कि यह उन्हें प्राकृतिक संसाधनों तक उचित पहुंच, प्रौद्योगिकी हस्तांतरण, समानता आधारित विकास और पर्यावरण अधिकार प्रदान करना है। यह राष्ट्रीयता के आधार पर नहीं, बल्कि पूरी मानव जाति को लाभ पहुंचाने का प्रयास करता है। यह जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क सम्मलेन की साझा लेकिन अलग-अलग जिम्मेदारियों और संबंधित क्षमताओं पर आधारित है।

कॉप 26 का लक्ष्य यह होना चाहिए कि विकासशील देश जलवायु दुष्परिणामों को कम करने और जलवायु परिवर्तन के प्रति अनुकूल होने से संबंधित कार्यों में विस्तार देकर जलवायु न्याय को सुनिश्चित करें। ये कार्य विकसित देशों द्वारा कार्यान्वयन के साधनों (वित्त, प्रौद्योगिकी हस्तांतरण, क्षमता निर्माण) के प्रावधानों पर आधारित होने चाहिए।            

भारत गरीबी का उन्मूलन करने और सतत विकास का लक्ष्य पाने की दोहरी चुनौती का सामना कर रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हमेशा जलवायु परिवर्तन का मुकाबला करने के क्रम में जलवायु न्याय की अनिवार्यता पर जोर दिया है। आज भारत एक सतत और समावेशी आर्थिक विकास प्रदान करने की दिशा में दुनिया की अगुवाई कर रहा है।

गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान भी नरेंद्र मोदी ने जलवायु परिवर्तन का मुकाबला करने से जुड़े उपायों में गहरी दिलचस्पी ली थी। उनके नेतृत्व में ही भारत ने सौर ऊर्जा उत्पादन के क्षेत्र में उस समय एक बड़ी छलांग लगाई, जब गुजरात के चरनका में 3,000 एकड़ में फैले एशिया के सबसे बड़े सौर पार्क/क्षेत्र (500 मेगावाट) का उद्घाटन किया गया। जलवायु न्याय से प्रेरित इस उपाय ने सौर ऊर्जा को आर्थिक रूप से कम लागत में प्राप्त करने का प्रयास किया, जिससे यह सबसे कमजोर और दलित वर्ग के लिए सुलभ हो सका। नहर के ऊपर सौर ऊर्जा के उत्पादन से जुड़ी परियोजना का गुजरात मॉडल कीमती उपजाऊ कृषि भूमि को बचाने के अलावा पानी की कमी से जूझने वाले इस राज्य में जल-संरक्षण में भी मदद करता है।

पर्यावरण के प्रति एक जागरूक और जिम्मेदार राष्ट्र के तौर पर, भारत जलवायु परिवर्तन को कम करने वाले उपायों के एक आवश्यक घटक के रूप में जलवायु न्याय को शामिल करने वाले अग्रणी देशों में से एक के रूप में उभरा है। इसने स्वेच्छा से ऐसे लक्ष्य निर्धारित किए हैं जो विकासशील देश के मानकों की दृष्टि से अभूतपूर्व हैं। हम 2030 तक सकल घरेलू उत्पाद की उत्सर्जन तीव्रता को 2005 के स्तर से 33-35 प्रतिशत तक कम करने के प्रति वचनबद्ध हैं।

इन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए, हम नवीकरणीय संसाधनों के माध्यम से ऊर्जा उत्पादन की ओर धीरे-धीरे बढ़ने के अलावा गैर-आवश्यक जीवनशैली के पसंद में बदलाव करके खपत के मामले में भी बदलाव करने पर जोर दे रहे हैं।

कृषि योग्य भूमि में बिजली के साथ-साथ पानी की खपत को कम करने के दोहरे उद्देश्य को हासिल करने के लिए सिंचाई के पारंपरिक तरीकों की जगह ‘प्रति बूंद, अधिक फसल’ वाली ड्रिप सिंचाई योजना को अपनाते हुए प्रधानमंत्री किसान ऊर्जा सुरक्षा एवं उत्थान महाभियान (पीएम-कुसुम) पहले ही कई राज्यों में शुरू हो चुका है। इस महाभियान का लक्ष्य 90 प्रतिशत सब्सिडी पर खेती के काम आने वाला सौर पंप उपलब्ध कराना है।

सौर गठबंधन की भारत की पहल का उद्देश्य दुनिया के ऊर्जा संबंधी स्रोत को न केवल गैर-नवीकरणीय ऊर्जा से नवीकरणीय ऊर्जा की ओर ले जाना है, बल्कि समाज के सबसे हाशिए पर रहने वाले वर्गों को सस्ती बिजली भी उपलब्ध कराना है। यह पहल न केवल रोजगार को हरित क्षेत्र की ओर स्थानांतरित करेगी, बल्कि कम विकसित देशों को ऊर्जा के मामले में आत्मनिर्भर बनने के लिए पर्याप्त अवसर भी प्रदान करेगी।

सरकार ने एक जल संरक्षण योजना शुरू की है जो जलाशयों को दुरुस्‍त करने, औद्योगिक खपत को विनियमित करने, वर्षा जल को संचित करने और अपशिष्ट जल को पुन: उपयोग के लायक बनाने पर ध्यान केंद्रित करेगी। जल जीवन मिशन- हर घर जल योजना- के तहत प्रत्येक ग्रामीण परिवार को 2024 तक एक चालू नल जल कनेक्शन प्रदान किया जाना है। विभिन्‍न समावेशी योजनाओं में से एक है पीएम उज्ज्वला योजना जो गरीब परिवारों को स्‍वच्‍छ रसोई ईंधन प्रदान करती है। इसके अलावा यह योजना महिलाओं और बच्चों के स्वास्थ्य को रसोई में लकड़ी, कोयला, उपले आदि के जलने से होने वाली श्वांस संबंधी कई बीमारियों से भी बचाती है।

जलवायु न्याय के लक्ष्यों में जीवों को मानवजनित जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से बचाना भी शामिल होना चाहिए। भारत ने पेंच कान्हा टाइगर रिजर्व में दुनिया का सबसे बड़ा वन्यजीव कॉरिडोर बनाकर उल्‍लेखनीय पहल की है। भारत एकमात्र ऐसा देश है जहां बाघों की 60 प्रतिशत आबादी के साथ सबसे बड़ा बाघ संरक्षण कार्यक्रम चल रहा है। यह एकमात्र ऐसा देश है जहां एशियाई शेर एवं कई अन्य प्रजातियों के लिए विशेष संरक्षण कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं।

प्रकृति के प्रति सम्मान भारतीय लोकाचार में निहित है और इसे प्राचीन अथर्ववेद में पृथ्वी सूक्त से लेकर आधुनिक काल में महात्मा गांधी द्वारा प्रतिपादित ट्रस्टीशिप के सिद्धांत तक प्रदर्शित किया गया है। भारत ने आदिवासियों के अधिकारों को वैधानिक रूप से मान्यता दी है जो अपने पारंपरिक ज्ञान के जरिये सतत पर्यावरण को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं।

जलवायु न्याय भारत के लिए अपरिहार्य है जिसे अपनी विकासात्मक एवं वैश्विक आकांक्षाओं के लिए कार्बन एवं नीतिगत मोर्चे पर पर्यावरण एवं प्रकृति के अनुकूल अपनी प्रतिबद्धता का लाभ उठाने की आवश्यकता है। प्रधानमंत्री के नेतृत्व में हम एक समान पर्यावरण नीति तैयार करने के लिए प्रतिबद्ध हैं जिसमें केवल सरकारी नियमों के बजाय समावेशी पर्यावरण चेतना शामिल हो।

(लेखक, केंद्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन और श्रम एवं रोजगार मंत्री हैं)