डॉ प्रदीप कुमार मुंडा
झारखंड यानी छोटानागपुर का पठार भारत की प्राचीनतम भूमि है। यह ना केवल अपने अंदर अकूत खनिज संपदा समेटे हुए है, बल्कि इसका इतिहास भी इसके अस्तित्व की तरह अति पुरातन है। सभ्यता के आरंभकर्ता यहां के जनजातियों ने यहां रहते हुए एक विशिष्ट जीवन शैली विकसित की है, जो झारखंड के समाज को उनकी संस्कृति और भाषा को सीधे झारखंड के जल, जंगल, जमीन के साथ धार्मिक प्राथमिक रूप से जोड़ता है। दुखद पहलू यह है कि आज तक इसे इतिहास में अस्तित्व नहीं मिल पा रहा है और ना ही आज अधिसंख्य लोग ही इसे समझ पाते हैं।
आधुनिक भारत का इतिहास में झारखंड/ छोटानागपुर को 1765 से जानना शुरू किया जाता है, जब इलाहाबाद की संधि के कारण समस्त बंगाल प्रांत में कर वसूली का अधिकार ईस्ट इंडिया कंपनी को दे दिया गया। तत्कालीन व्यवस्था ने कर वसूलने के तमाम हथकंडे अपनाने शुरू कर दिए। यह प्रकृति के साथ स्वच्छंद सामाजिक जीवन जीने वाले आदिवासियों के लिए बिल्कुल नया अनुभव था।
उनको तो यह भी नहीं पता था कि कर होता क्या है, इसलिए यह व्यवस्था आदिवासियों को उनके ऊपर चौतरफा आक्रमण की तरह लगी। यह जानना दिलचस्प होगा कि इससे पहले कि आदिवासी व्यवस्था में आदिवासी ही नीति निर्माता थे और उनके समाज में कर जैसा कोई व्यवस्था नहीं थी। 1765 में छोटानागपुर में कर प्रणाली लागू होने के साथ ही विरोध के स्वर प्रस्फुटित होने लगा और दीवानी व्यवस्था के विरोध में तिलका मांझी उर्फ जबरा पहाड़िया ने आवाज बुलंद की तथा अंग्रेजों और उनके भारतीय सामंतों के विरुद्ध आंदोलन छेड़ दिया। अंग्रेजों और साहूकारों को मारते हुए उन्होंने तत्कालीन भागलपुर के कमिश्नर क्लीवलैंड की हत्या कर दी। फांसी पर चढ़ते हुए उनके गीत हंसी हंसी चड़बो फंसी आज भी हिंदुस्तान के प्रथम स्वतंत्रता सेनानी की याद दिलाते हैं।
आदिवासी समाज के इस लड़ाके के बारे में ऐतिहासिक दस्तावेज सिर्फ नाम का उल्लेख करते हैं। बड़ी बात यह रही कि इस विद्रोह में तिलकामांझी उर्फ जबरा पहाड़िया के साथ पूरा आदिवासी समाज खड़ा था। अंग्रेजों को संदेश दिया गया कि वे अपने जल जंगल जमीन के हकों के लिए कोई समझौता नहीं करेंगे और समाज में अन्याय को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।
1793 का वर्ष आदिवासियों के लिए विनाश लेकर आया। तत्कालीन कंपनी प्रशासक लॉर्ड कार्नवालिस ने कर प्रणाली व्यवस्था को स्थाई रूप से बंदोबस्त कर दिया। यानी कंपनी के देशी मुलाजिम स्थाई रूप से जमींदार बना दिए गए। कंपनी के इस कदम ने आदिवासी को जल जंगल जमीन के मालिकाना हक से बेदखल कर किराएदार बना दिया, जबकि कंपनी के नौकर अब मालिक बन गए। इन देसी जमींदारों को कंपनी का समर्थन प्राप्त था। आदिवासियों का शोषण अपने पराकाष्ठा पर पहुंच गई। फलस्वरूप बिना देर किए पलामू के चेरो आदिवासियों ने विद्रोह कर दिया, जिसे इतिहास में चेरो आंदोलन (1795-1800) के नाम से जाना जाता है।
इसके अलावा 1820 में कर व्यवस्था को और व्यापक करने की कोशिश की गई तो 1820 में तमाड़ के मुंडा लोगों ने विद्रोह कर दिया। इसके बाद 1832 -33 में आदिवासियों ने छोटानागपुर में स्वशासन की मांग को लेकर व्यापक रूप से विद्रोह कर दिया। आज हम उसे कोल विद्रोह के नाम से जानते हैं। इसी के फलस्वरूप सिंहभूम क्षेत्र में विलकिंसन व्यवस्था को लागू कर आदिवासियों को स्वशासन का अधिकार दिया गया एवं उनके असंतोष को शांत करने की कोशिश की गई। 1850 में गुमला, लोहरदगा सिमडेगा, कोलेबिरा के आदिवासी समाज को एकत्रित कर तेलंगा-खड़िया ने विद्रोह किया। 1855 के संथाल विद्रोह ने आदिवासी स्वशासन की अवधारणा और उनके अंदर असंतोष को राज्य और राष्ट्रीय स्तर तक पहुंचा दिया और सदो-कान्हू आदिवासी विद्रोह का प्रतीक बने। ये घटाएं 1857 के विद्रोह से पहले हो रही थीं।
1859 में अंग्रेजों ने बिक्री कर कानून पास किया। और आदिवासियों से बेगारी लेने लगे। मूल्य पर सरकार का नियंत्रण और बेगारी के विरुद्ध 1860 में मुंडा और उरांव जनजाति के लोगों ने आंदोलन छेड़ा जिसे आज सरदार आंदोलन के नाम से जाना जाता है। यह आंदोलन 1887 तक चला।
छोटानागपुर में आदिवासियों के बढ़ते विरोध को देखते हुए तत्कालीन अंग्रेजी हुकूमत ने झारखंड स्कीडुले डिस्ट्रिक्ट एक्ट 1874 और इंडियन फॉरेस्ट एक्स 1878 पास किया। लेकिन इसमें भी वे अपने स्वार्थ और देसी दलालों की चाटुकारिता को छुपा नहीं पाए और यहां भी शोषण का ही काम किया।
आदिवासी असंतोष और गुस्से का चरम बिंदु बिरसा मुंडा का आंदोलन बना, जिसने जल, जंगल, जमीन और धर्म से पूरे समाज को जोड़कर एक साथ खड़ा कर दिया। अन्याय और संतोष के विरुद्ध बिरसा मुंडा के आंदोलन ने अंग्रेजों को सोचने को विवश कर दिया और इस आंदोलन के फलस्वरूप आदिवासियों के लिए छोटानागपुर काश्तकारी 1908 बना, जिसमें आदिवासियों की संपत्ति को सरकार का संरक्षण मिला।
बावजूद इसके आदिवासियों के पूर्ण स्वराज की मांग को दबाया नहीं जा सका। 1912 में लोहरदगा गुमला जिले के आदिवासियों ने जतरा टाना भगत के नेतृत्व में इतिहास में पहली बार ने असहयोग आंदोलन छेड़ दिया।
गौरतलब है कि टाना भक्तों का यह आंदोलन महात्मा गांधी के राष्ट्रीय स्तर पर असहयोग आंदोलन के पहले शुरू हुआ था।
उल्लेखनीय है कि हिंदुस्तान की आजादी के आंदोलन में छोटानागपुर झारखंड के आदिवासियों ने जल, जंगल, जमीन पर अपनी मिल्कियत के लिए न केवल आगे आए बल्कि पूरे समाज के साथ विरोध भी किया। आदिवासी समाज कभी राजशाही व्यवस्था में विश्वास नहीं करता था, इसलिए महाराजा मदरा मुंडा ने अपने दत्तक पुत्र को राजगद्दी सौंपी। इतिहास में ऐसा दूसरा प्रकरण विश्व में कहीं नहीं मिलेगा। उनको इस बात से भी कोई वास्ता नहीं था कि गद्दी पर कौन बैठेगा या बैठा है। उनको सिर्फ इस बात से सरोकार था कि उनका समाज, उनकी आस्था उनका धर्म जो प्रकृति, समाज और मानव के परस्पर आदर और सहयोग के संबंध पर टिका हुआ है, उसमें कोई हस्तक्षेप ना करे। इसलिए जल, जंगल, जमीन और जीवन जैसे बुनियादी मुद्दों को लेकर आदिवासी समाज खड़ा हो जाता है।
अन्याय नहीं करने और नहीं सहने की वंशानुगत परंपरा उन्हें सामाजिक, सांस्कृतिक रूप से एक कर देती है, परंतु स्वतंत्रता आंदोलन में अपनी प्रमुखता के बावजूद इतिहास में उनके योगदान को सम्मान नहीं दिया जाना सवाल खड़े करता है।
(लेखक झारखंड के रांची स्थित बीआईटी मेसरा के प्रबंधन विभाग के सहायक व्याख्याता हैं।)